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ठुकरा दो या प्यार करो


एक गहन भाव से भरी, एवं समर्पण भाव से आप्लावित,सुभद्रा कुमारी चौहान की यह  कविता " ठुकरा दो या प्यार करो " में उन्होंने इस चिर सत्य का रूप निर्धारित किया है कि पूजा तथा अर्चन के निमित्त किसी वस्तु की जरूरत नही है। मनुष्य के भाव यदि अमल और धवल हैं तो भगवान भक्त को भी उसी दृष्टि से देखता है । अपनी भावों को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाकर कवयित्री ने इस कविता में यह संदेश देने का प्रयस किया है कि भगवान भाव के भूखे होते हैं,उन्हे प्रसन्न करने के लिए भक्तों के निर्मल मन का प्रेम ही पर्याप्त है।

देव! तुम्हारे कई उपासक कई ढंग से आते हैं ।
सेवा में बहुमूल्य भेंट वे कई रंग की लाते हैं ॥
धूमधाम से साजबाज से मंदिर में वे आते हैं ।
मुक्तामणि बहुमूल्य वस्तुएँ लाकर तुम्हें चढ़ाते हैं ॥
मैं ही हूँ गरीबिनी ऐसी जो कुछ साथ नहीं लायी ।
फिर भी साहस कर मंदिर में पूजा करने चली आयी ॥
धूप दीप नैवेद्य नहीं है झांकी का शृंगार नहीं ।
हाय! गले में पहनाने को फूलों का भी हार नहीं ॥
मैं कैसे स्तुति करूँ तुम्हारी ? है स्वर में माधुर्य नहीं ।
मन का भाव प्रकट करने को वाणी में चातुर्य नहीं ॥
नहीं दान है, नहीं दक्षिणा ख़ाली हाथ चली आयी ॥
पूजा की विधि नहीं जानती फिर भी नाथ! चली आयी ॥
 पूजा और पुजापा प्रभुवर ! इसी पुजारिन को समझो ।
दान दक्षिणा और निछावर इसी भिखारिन को समझो ॥
 मैं उन्मत्त प्रेम की प्यासी हृदय दिखाने आयी हूँ ।
जो कुछ है, बस यही पास है इसे चढ़ाने आयी हूँ ॥
 चरणों पर अर्पित है, इसको चाहो तो स्वीकार करो ।
यह तो वस्तु तुम्हारी ही है, ठुकरा दो या प्यार करो ॥

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