जित देखो उत रामहिँ रामा: एक आध्यात्मिक विश्वदर्शन
जित देखो उत रामहिँ रामा
जित देखो उत पूरण कामा
तृण तरुवर साते सागर
जिते देखो उत मोहन नागर
जल थल काष्ठ पषाण अकाशा
चंद्र सुरज नच तेज प्रकाशा
मोरे मन मानस राम भजो रे
'रामदास' प्रभु ऐसा करो रे
हिन्दी साहित्य का खज़ाना
जित देखो उत रामहिँ रामा
जित देखो उत पूरण कामा
तृण तरुवर साते सागर
जिते देखो उत मोहन नागर
जल थल काष्ठ पषाण अकाशा
चंद्र सुरज नच तेज प्रकाशा
मोरे मन मानस राम भजो रे
'रामदास' प्रभु ऐसा करो रे
"कहाँ कहाँ जाऊँ तेरे साथ कन्हैया" मीराबाई द्वारा रचित एक प्रसिद्ध भक्ति गीत है, जिसमें कृष्ण के प्रति उनके अगाध प्रेम और समर्पण की अभिव्यक्ति है। इस पद में मीरा अपने आराध्य कृष्ण के साथ अपने अनुभवों और भावनात्मक संबंध को व्यक्त करती हैं।
यह पद मीराबाई के हृदय में बसे कृष्ण-प्रेम की गहराई को दर्शाता है। आइए इसकी पंक्तियों को समझें:
मीरा कृष्ण से पूछती हैं कि वे उनके साथ कहाँ-कहाँ जाएँ। यह प्रश्न उनकी अनन्य भक्ति और समर्पण को दर्शाता है, जहाँ वे अपने जीवन के हर क्षण में कृष्ण के साथ रहना चाहती हैं।
मीरा वृंदावन की कुंज गलियों (पेड़ों और लताओं से घिरे संकरे मार्ग) में कृष्ण के साथ विहार करना चाहती हैं, जहाँ वे उनका हाथ पकड़कर चलें। वृंदावन कृष्ण की लीलाभूमि है, और मीरा वहाँ अपने प्रियतम के साथ रहने की अभिलाषा व्यक्त करती हैं।
यहाँ मीरा कृष्ण की बाल लीलाओं का उल्लेख करती हैं, जिसमें वे दूध पीते हैं और मटकियाँ (मिट्टी के बर्तन) फोड़ते हैं। "भुज भर साथ" का अर्थ है कि कृष्ण ने अपनी बाहों से मटकियों को लिया। मीरा इन शरारतों को भी प्रेम से याद करती हैं।
इस पंक्ति में मीरा कृष्ण के द्वारा उनकी गागर (पानी का बड़ा बर्तन) को झपटकर पटकने का वर्णन करती हैं। "साँवरे सलोने लोने गात" से तात्पर्य कृष्ण के सुंदर श्यामल शरीर से है, जिसे मीरा बड़े प्रेम से याद करती हैं।
मीरा कहती हैं कि मनमोहन (कृष्ण) ने कभी भी उनसे दान (कर) नहीं लिया, लेकिन वे हमेशा गोकुल (कृष्ण का जन्मस्थान) आते-जाते रहते हैं। यह पंक्ति गोपियों से दही-दूध का दान माँगने की कृष्ण की लीला को संदर्भित करती है।
अंतिम पंक्ति में मीरा अपने आराध्य कृष्ण को "गिरिधर नागर" (गोवर्धन पर्वत को धारण करने वाले सुंदर पुरुष) और "जनम जनम के नाथ" (जन्म-जन्मांतर के स्वामी) के रूप में संबोधित करती हैं, जो उनके अनन्य समर्पण और भक्ति को दर्शाता है।
यह पद राधा-कृष्ण प्रेम की परंपरा में लिखा गया है, जहाँ भक्त अपने आप को राधा के रूप में देखता है और कृष्ण के प्रति अपनी भक्ति और प्रेम को व्यक्त करता है। मीराबाई ने इस परंपरा को आत्मसात करते हुए कृष्ण के प्रति अपने प्रेम को अत्यंत सुंदर और भावपूर्ण शब्दों में व्यक्त किया है।
इस पद में कृष्ण की विभिन्न लीलाओं का उल्लेख है - बाल कृष्ण के रूप में मटकियाँ फोड़ना, गोपियों से दही-दूध छीनना, और गोवर्धन पर्वत को धारण करना। ये सभी कृष्ण के जीवन के प्रसिद्ध प्रसंग हैं, जिन्हें मीरा ने अपने पदों में बड़े प्रेम से चित्रित किया है।
मीराबाई (लगभग 1498-1546) मेवाड़ के राजा रतन सिंह की पत्नी थीं, लेकिन उनका हृदय हमेशा कृष्ण के प्रति समर्पित रहा। उन्होंने अपने जीवन में अनेक कठिनाइयों का सामना किया, लेकिन कृष्ण के प्रति उनकी भक्ति अटल रही। उनके पद आज भी भक्ति संगीत में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं और लोगों को आध्यात्मिक मार्ग पर प्रेरित करते हैं।
मीराबाई के इस पद में उनके कृष्ण के प्रति प्रेम की अभिव्यक्ति साकार और निराकार दोनों रूपों में मिलती है। वे कृष्ण के साथ वृंदावन की गलियों में घूमना चाहती हैं (साकार प्रेम), और साथ ही उन्हें जन्म-जन्मांतर के नाथ के रूप में भी देखती हैं (निराकार प्रेम)।
मीराबाई के पद आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने वे उनके समय में थे। वे हमें सिखाते हैं कि सच्ची भक्ति और प्रेम में समर्पण और त्याग का भाव होता है। मीरा ने अपने सामाजिक दायित्वों और रूढ़िवादी परंपराओं के बावजूद अपने आराध्य के प्रति अपनी भक्ति को बनाए रखा, जो आज के समय में भी प्रेरणादायक है।
इस पद को सुनकर श्रोता भी अपने आप को कृष्ण के प्रेम में डूबा हुआ महसूस करता है, जो भक्ति मार्ग का मूल उद्देश्य है - ईश्वर के साथ एकात्मता का अनुभव।
मीराबाई के इस अमर भक्ति गीत में कृष्ण के प्रति उनके अनन्य प्रेम, समर्पण और विश्वास की झलक मिलती है। यह पद हमें सिखाता है कि ईश्वर के प्रति सच्ची भक्ति में कैसी निश्छलता और प्रेम होता है। मीरा का यह पद आज भी भक्ति संगीत की अनमोल धरोहर है, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपनी सुंदरता और गहराई के साथ लोगों के हृदय को छूता रहेगा।
References
13 फरवरी, 1879 को हैदराबाद में एक बंगाली परिवार में जन्मी, सरोजिनी नायडू ने बचपन से ही असाधारण प्रतिभा का परिचय दिया। उनके पिता, डॉ. अघोरनाथ चट्टोपाध्याय, एक वैज्ञानिक और शिक्षाविद थे, जबकि उनकी माता बारदा सुंदरी देवी एक कवयित्री थीं। इस समृद्ध बौद्धिक वातावरण ने सरोजिनी की प्रतिभा को पोषित किया।
अपनी असाधारण प्रतिभा के कारण, मात्र बारह वर्ष की आयु में सरोजिनी ने मैट्रिक की परीक्षा पास कर मद्रास प्रेसीडेंसी में प्रथम स्थान प्राप्त किया। इस उपलब्धि से प्रभावित होकर, हैदराबाद के निज़ाम ने उन्हें विदेश में पढ़ने के लिए छात्रवृत्ति प्रदान की। उन्होंने किंग्स कॉलेज लंदन और बाद में गिर्टन कॉलेज, कैम्ब्रिज में अध्ययन किया, जहां उन्होंने अपने साहित्यिक कौशल को निखारा।
यह उल्लेखनीय है कि केवल 13 वर्ष की आयु में, सरोजिनी ने 1300 पदों की 'झील की रानी' नामक लंबी कविता और लगभग 2000 पंक्तियों का एक विस्तृत नाटक लिखकर अंग्रेजी भाषा पर अपना अधिकार सिद्ध कर दिया था। उनके पिता, जो उन्हें एक वैज्ञानिक के रूप में देखना चाहते थे, अपनी बेटी की साहित्यिक प्रतिभा से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने 'एस. चट्टोपाध्याय कृत पोयम्स' के नाम से सन् 1903 में उनकी कविताओं का एक संग्रह प्रकाशित करवाया।
1898 में इंग्लैंड से लौटने के बाद, सरोजिनी का विवाह डॉ. गोविन्दराजुलु नायडू से हुआ, जो एक फ़ौजी डॉक्टर थे। शुरुआत में उनके पिता इस विवाह के विरुद्ध थे, परंतु बाद में सहमत हो गए। हैदराबाद में उनका घर प्रेम, हंसी और सौंदर्य का केंद्र बन गया, जहां दूर-दूर से मित्र आते रहते थे। अपने परिवार और गृहस्थी के प्रति समर्पित होने के बावजूद, सरोजिनी का मन राष्ट्रीय कार्यों की ओर उन्मुख था।
सरोजिनी नायडू ने अपनी सुंदर काव्यात्मक रचनाओं के लिए "भारत कोकिला" का उपाधि अर्जित की। उनके प्रमुख काव्य संग्रहों में शामिल हैं:
सरोजिनी नायडू अपनी अंग्रेजी शिक्षा के दौरान इंग्लैंड में दो साल तक ही रहीं, किंतु वहाँ के प्रतिष्ठित साहित्यकारों और मित्रों ने उनकी बहुत प्रशंसा की। उनके मित्र और प्रशंसकों में 'एडमंड गॉस' और 'आर्थर सिमन्स' भी थे। उन्होंने किशोर सरोजिनी को अपनी कविताओं में गम्भीरता लाने की राय दी।
'द गोल्डन थ्रेशहोल्ड' के बाद 'बर्ड ऑफ़ टाइम' नामक संग्रह सन् 1912 में प्रकाशित हुआ, जिसमें उन्होंने लिखा:
"समय के पंछी का उड़ने को सीमित विस्तार पर लो पंछी तो यह उड़ चला।।"
इसके बाद सन् 1917 में उनका तीसरा कविता-संग्रह 'द ब्रोकन विंग' प्रकाशित हुआ, जिसमें उन्होंने लिखा:
"ऊँची उठती हूँ मैं, कि पहुँचू नियत झरने तक टूटे ये पंख लिए, मैं चढ़ती हूँ ऊपर तारों तक।"
यह "तारों तक पहुँचने" की भावना सदैव उनके साथ रही। सन् 1946 में दिल्ली में 'एशियन रिलेशन्स कॉन्फ्रेंस' को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा - "हम आगे, और भी आगे, ऊँचे, और ऊँचे जायेंगे, जब तक हम तारों तक न पहुँच जाएँ। आइए, तारों तक पहुँचने के लिए हम लोग बढ़ें।"
सन 1937 में, कई वर्षों बाद, सरोजिनी नायडू का आख़िरी कविता-संग्रह 'द सेप्टर्ड फ्लूट' प्रकाशित हुआ। इस समय वह देश की राजनीति में रची बसी थीं और बहुत लम्बे समय से उन्होंने कविता लिखना लगभग छोड़ ही दिया था।
सरोजिनी नायडू स्वयं अपनी रचनाओं को बहुत ही साधारण मानती थीं। "मैं सचमुच कोई कवि नहीं हूँ," उन्होंने कहा - "मेरे सामने एक दर्शन है, मगर मेरे पास आवाज़ नहीं है।" उन्होंने स्वयं को केवल "गीतों की गायिका" बताया। किंतु उनके गीत बहुत मधुर थे जो कोमल भावों और प्रेम की भावना से ओतप्रोत थे।
सरोजिनी नायडू की कविताएँ प्रकृति, प्रेम, जीवन, मृत्यु और देशभक्ति के विषयों पर आधारित थीं। उनकी रचनाओं में भारतीय संस्कृति की समृद्धि, विविधता और सौंदर्य का चित्रण बड़े ही सहज और सुंदर ढंग से किया गया है। 'बाज़ार ऑफ़ द हार्ट' नामक कविता में उन्होंने भारतीय बाज़ारों की रंगीन दुनिया का जीवंत वर्णन किया है, जबकि 'इंडियन वीवर्स' में भारतीय बुनकरों की कठिन मेहनत और उनके हुनर को सम्मानित किया है।
हालांकि सरोजिनी नायडू मुख्य रूप से अंग्रेजी में लिखती थीं, हिंदी साहित्य पर उनका प्रभाव अप्रत्यक्ष रूप से महत्वपूर्ण था। वे बहुभाषाविद थीं और अपनी माता वरदा सुंदरी से बंगला सीखी तथा हैदराबाद के परिवेश से तेलुगु में प्रवीणता प्राप्त की। वे उर्दू शायरी की भी शौकीन थीं और काफी अच्छी उर्दू बोलती थीं। क्षेत्रानुसार वे अपना भाषण अंग्रेज़ी, हिंदी, बंगला या गुजराती भाषा में देती थीं।
हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के प्रचार के लिए नायडू का समर्थन स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान उनके विकास में योगदान देता था। उन्होंने सांस्कृतिक और राजनीतिक प्रवचन में क्षेत्रीय भाषाओं के उपयोग को प्रोत्साहित किया, राष्ट्रीय पहचान निर्माण में उनके महत्व को समझते हुए।
विभिन्न भारतीय भाषाओं से लोक गीतों और सांस्कृतिक तत्वों के अंग्रेजी में उनके अनुवादों ने इन परंपराओं को संरक्षित और बढ़ावा देने में मदद की। इसके विपरीत, उनकी कई अंग्रेजी कविताओं का बाद में हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद किया गया, जिससे उनका कार्य व्यापक दर्शकों के लिए सुलभ हो गया।
सरोजिनी नायडू सिर्फ एक कवयित्री ही नहीं, बल्कि एक दृढ़ स्वतंत्रता सेनानी भी थीं जिन्होंने अपना जीवन भारत के स्वतंत्रता संग्राम के लिए समर्पित किया। उनकी राजनीतिक यात्रा लगभग चौबीस वर्ष की आयु में प्रारंभ होती है। 1902 में कोलकाता (कलकत्ता) में उन्होंने बहुत ही ओजस्वी भाषण दिया जिससे गोपालकृष्ण गोखले बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने सरोजिनी जी का राजनीति में आगे बढ़ाने के लिए मार्गदर्शन किया।
महात्मा गांधी से उनकी मुलाकात 1914 में लंदन में हुई, जिसके बाद उनका जीवन पूरी तरह से राष्ट्रीय आंदोलन को समर्पित हो गया। गांधी जी के साथ रहकर सरोजिनी की राजनीतिक सक्रियता बढ़ती गई। वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हुईं और गांधी जी की करीबी सहयोगी बनीं, सविनय अवज्ञा आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया।
1925 में, उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कानपुर अधिवेशन की अध्यक्षता की, जिससे वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष बनने वाली पहली भारतीय महिला बनीं। गांधी जी ने सरोजिनी नायडू का कांग्रेस प्रमुख के रूप में बड़े ही उत्साह भरे शब्दों में स्वागत किया, 'पहली बार एक भारतीय महिला को देश की यह सबसे बड़ी सौगात पाने का सम्मान मिलेगा। अपने अधिकार के कारण ही यह सम्मान उन्हें प्राप्त होगा।'
अपने अध्यक्षीय भाषण में सरोजिनी नायडू ने भारत के सामाजिक, आर्थिक, औद्योगिक और बौद्धिक विकास की आवश्यकता की बात की। प्रभावशाली शब्दों में उन्होंने भारत की जनता को अपने देश की स्वाधीनता के लिए हिम्मत और एकता के साथ आगे बढ़ने का आह्वान किया। अपने भाषण के अंत में उन्होंने कहा, "स्वाधीनता संग्राम में भय एक अक्षम्य विश्वासघात है और निराशा एक अक्षम्य पाप है।"
1930 के प्रसिद्ध नमक सत्याग्रह में सरोजिनी नायडू गांधी जी के साथ चलने वाले स्वयंसेवकों में से एक थीं। गांधी जी की गिरफ्तारी के बाद, गुजरात के धरासणा में लवण-पटल की पिकेटिंग करते हुए, जब तक स्वयं गिरफ्तार न हो गईं, तब तक वह आंदोलन का संचालन करती रहीं। धरासणा वह स्थान था जहाँ पुलिस ने शान्तिमय और अहिंसक सत्याग्रहियों पर घोर अत्याचार किए थे। सरोजिनी नायडू ने उस परिस्थिति का बड़े साहस के साथ सामना किया और अपने बेजोड़ विनोदी स्वभाव से वातावरण को सजीव बनाये रखा।
1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान, गांधी जी और कांग्रेस कार्यकारिणी के अन्य सदस्यों के साथ सरोजिनी नायडू को भी गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें गांधी जी के साथ पुणे के आगा खान महल में रखा गया। कष्टप्रद दिनों में, जब गांधी जी उदास होते, तब अपने खराब स्वास्थ्य के बावजूद सरोजिनी नायडू अपने विनोद और हंसी से उनका मन बहलाने की कोशिश करतीं। महादेव देसाई और कस्तूरबा गांधी की मृत्यु के बाद भी, सरोजिनी नायडू चट्टान की तरह अडिग गांधी जी के साथ रहीं।
सरोजिनी नायडू महिला अधिकारों और शिक्षा की प्रबल पक्षधर थीं। उन्होंने 1917 में महिला भारतीय संघ की सह-स्थापना की और राष्ट्रीय आंदोलन में महिला मुद्दों को सामने लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके भाषणों और लेखों ने स्वतंत्रता संग्राम और राष्ट्र निर्माण में महिलाओं की भागीदारी के महत्व पर जोर दिया।
सरोजिनी नायडू का यह मानना था कि भारतीय नारी कभी भी कृपा की पात्र नहीं थी, वह सदैव से समानता की अधिकारी रही है। उन्होंने अपने इन विचारों के साथ महिलाओं में आत्मविश्वास जाग्रत करने का काम किया। पितृसत्ता के समर्थकों को भी नारियों के प्रति अपना नज़रिया बदलने के लिये प्रोत्साहित किया।
उनकी नज़रों में शिक्षा नारी मुक्ति की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण क़दम था। शिक्षित होकर ही नारी अपने परिवार और समाज को बेहतर बना सकती है। इस उक्ति में उनका पूर्ण विश्वास था कि "जो हाथ पालना झुलाते हैं वही दुनिया पर शासन करते हैं।" लेकिन उनका यह भी विश्वास था कि किसी अज्ञानी और अशिक्षित नारी का हाथ यह नहीं कर सकता है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, सरोजिनी नायडू को उत्तर प्रदेश के राज्यपाल के रूप में नियुक्त किया गया, जिससे वे स्वतंत्र भारत के किसी राज्य की पहली महिला राज्यपाल बनीं। उस पद को स्वीकार करते हुए उन्होंने कहा, "मैं अपने को 'क़ैद कर दिये गये जंगल के पक्षी' की तरह अनुभव कर रही हूँ।" फिर भी, उन्होंने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के प्रति अपने स्नेह के कारण यह पद स्वीकार किया और लखनऊ में रहकर अपने कर्तव्यों का सौजन्य और गौरवपूर्ण ढंग से निर्वहन किया।
30 जनवरी, 1948 को गांधी जी की हत्या के बाद, शोकाकुल देश को धैर्य बंधाते हुए उन्होंने कहा, "व्यक्तिगत दु:ख मनाने का समय अब बीत चुका है। अब समय आ गया है कि हमें सीना तानकर यह कहना है: 'महात्मा गांधी का विरोध करने वालों की चुनौती हम स्वीकार करेंगे।'"
राजनीतिक और सामाजिक उत्तरदायित्वों के बावजूद, सरोजिनी नायडू हंसी और गीत की प्रतीक थीं। उनका वक्तव्य संगीतमय शब्दों में होता था, जो समय आने पर सिंह की गर्जना भी बन सकती थी। सौन्दर्य और रंगों के प्रति उनका प्रेम अदभुत था।
उस समय के गम्भीर चेहरे वाले और सफ़ेद खादी की पोशाक पहनने वाले नेताओं से भिन्न, वह रंग-बिरंगी चमकीली रेशमी साड़ियाँ पहनती थीं। वह भारी नेक्लेस और ख़ूबसूरत आभूषणों में दिलचस्पी लेती थीं। जब वह 1928 में अमेरिका गईं, तब जगमगाते सिने तारकों से भरे हॉलीवुड में जाना भी नहीं भूली थीं।
सुन्दर वस्त्रों की तरह स्वादिष्ट भोजन भी उन्हें बड़ा प्रिय था। चॉकलेट और कबाब तो उन्हें बहुत ही पसंद था। वह इतनी नटखट थीं कि खाने के बारे में डॉक्टरों की पाबन्दियों को नज़रअंदाज़ करने में उन्हें बड़ा मज़ा आता था।
राज्यपाल होने पर भी, सरोजिनी नायडू का व्यवहार हमेशा अनौपचारिक होता था। लोगों की, विशेषकर युवा लोगों की, वह स्वयं कष्ट सहकर भी सहायता करती थीं। देश की युवा पीढ़ी को वह बहुत चाहती थीं और उन पर उनका गहरा विश्वास था।
सरोजिनी नायडू ने अपने जीवन में अनेक प्रेरणादायक विचार दिए, जो आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं:
2 मार्च, 1949 को लखनऊ में सरोजिनी नायडू का निधन हो गया। वे एक ऐसी विरासत छोड़ गईं जो पीढ़ियों को प्रेरित करती रहेगी। एक कवयित्री, स्वतंत्रता सेनानी और महिला अधिकारों की पक्षधर के रूप में उनके बहुमुखी योगदान ने उन्हें आधुनिक भारतीय इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण व्यक्तित्वों में से एक बना दिया।
सरोजिनी नायडू एक बहुमुखी प्रतिभा की धनी थीं, जिन्होंने अपनी काव्य प्रतिभा, राजनीतिक नेतृत्व और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में भारत को एक अमूल्य योगदान दिया। उनका जीवन हमें सिखाता है कि कैसे साहित्य और राजनीति का सामंजस्य एक समाज को बदलने की शक्ति रखता है।
आज हम "भारत कोकिला" के रूप में जानी जाने वाली इस महान विभूति को नमन करते हैं, जिन्होंने अपनी मधुर वाणी से न केवल भारतीयों को बल्कि पूरे विश्व को मंत्रमुग्ध कर दिया। उनकी विरासत भारतीय इतिहास में सदैव अमर रहेगी और आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करती रहेगी।
कल्पना चावला (17 मार्च, 1962 - 1 फरवरी, 2003) एक भारतीय-अमेरिकी अंतरिक्ष यात्री और इंजीनियर थीं, जिन्होंने अपने अदम्य साहस और दृढ़ संकल्प से न केवल भारत बल्कि पूरे विश्व की महिलाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत बनीं। वह अंतरिक्ष में जाने वाली भारतीय मूल की पहली महिला थीं, जिन्होंने अपने जीवन से यह साबित कर दिया कि आकाश भी सीमा नहीं है।
कल्पना चावला का जन्म 17 मार्च, 1962 को हरियाणा के करनाल शहर में हुआ था। बचपन से ही उनका मन आकाश में उड़ते हुए विमानों को देखकर रोमांचित हो उठता था। उनके पिता बनारसी लाल चावला एक व्यापारी थे, जबकि मां सांवली देवी गृहिणी थीं। अपने छोटे से शहर से उड़ान भरने के लिए कल्पना ने कड़ी मेहनत और लगन से पढ़ाई की।
उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा टैगोर पब्लिक स्कूल, करनाल से प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने पंजाब इंजीनियरिंग कॉलेज, चंडीगढ़ से 1982 में एयरोनॉटिकल इंजीनियरिंग में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। अपनी शिक्षा को आगे बढ़ाने के लिए वह अमेरिका चली गईं और टेक्सास विश्वविद्यालय से 1984 में एयरोस्पेस इंजीनियरिंग में मास्टर्स डिग्री हासिल की। उन्होंने अपनी शैक्षिक यात्रा को और आगे बढ़ाते हुए 1988 में कोलोराडो विश्वविद्यालय से एयरोस्पेस इंजीनियरिंग में पीएचडी की उपाधि प्राप्त की।
अपनी पीएचडी पूरी करने के बाद, कल्पना ने एमस रिसर्च सेंटर, नासा में काम करना शुरू किया, जहां उन्होंने उड़ने वाले विमानों के आसपास हवा के प्रवाह का अध्ययन किया। 1993 में उन्होंने नासा के अंतरिक्ष यात्री कार्यक्रम के लिए आवेदन किया और 1994 में उन्हें अंतरिक्ष यात्री के रूप में चुना गया।
कल्पना ने नवंबर 1997 में अपनी पहली अंतरिक्ष उड़ान स्पेस शटल कोलंबिया (मिशन STS-87) पर एक मिशन विशेषज्ञ और प्राथमिक रोबोटिक आर्म ऑपरेटर के रूप में भरी। इस मिशन के दौरान, उन्होंने वैज्ञानिक अध्ययन किए और पृथ्वी के वायुमंडल के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी एकत्र की। उनकी पहली अंतरिक्ष यात्रा में 10.4 मिलियन मील की यात्रा के साथ पृथ्वी के 252 चक्कर लगाए और अंतरिक्ष में 15 दिन बिताए।
उनकी दूसरी अंतरिक्ष उड़ान जनवरी 2003 में स्पेस शटल कोलंबिया (मिशन STS-107) पर थी। इस 16-दिवसीय मिशन के दौरान, कल्पना और उनके साथी अंतरिक्ष यात्रियों ने 80 से अधिक वैज्ञानिक प्रयोग किए।
1 फरवरी, 2003 को, जब कोलंबिया पृथ्वी के वायुमंडल में फिर से प्रवेश कर रही थी, तब शटल का बायां पंख क्षतिग्रस्त हो गया और विस्फोट हो गया। इस दुर्घटना में कल्पना चावला सहित सभी सात अंतरिक्ष यात्रियों की मृत्यु हो गई। यह न केवल भारत के लिए बल्कि पूरे विश्व के लिए एक बड़ी क्षति थी।
कल्पना चावला की मृत्यु के बाद, उनकी स्मृति में कई सम्मान और पुरस्कार दिए गए। नासा ने उनके सम्मान में एक तारे का नाम "कल्पना चावला तारा" रखा। भारत सरकार ने भी उनके नाम पर कई संस्थानों और छात्रवृत्तियों की स्थापना की है।
कल्पना चावला ने 1983 में जीन-पियरे हैरिसन से विवाह किया था, जो एक प्रशिक्षण पायलट और उड़ान प्रशिक्षक थे। वह अपने व्यक्तिगत जीवन में सादगी और शांति पसंद करती थीं। उनके जीवन का मूल मंत्र था - "सपने देखो, बड़े सपने देखो और उन्हें पूरा करने के लिए हर संभव प्रयास करो।"
कल्पना को योग और ध्यान का शौक था, और वह अंतरिक्ष में भी नियमित रूप से इनका अभ्यास करती थीं। उन्हें पढ़ना, हवाई जहाज उड़ाना और पहाड़ी पर चढ़ना भी पसंद था।
कल्पना चावला के जीवन से प्रेरित कुछ प्रेरणादायक उद्धरण:
कल्पना चावला के जीवन और उपलब्धियों ने दुनिया भर की लड़कियों और महिलाओं को प्रेरित किया है, विशेष रूप से भारत में, जहां उन्होंने विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में करियर बनाने के लिए युवा महिलाओं की एक नई पीढ़ी को प्रेरित किया है।
उनकी कहानी साहस, दृढ़ संकल्प और अपने सपनों को जीने की प्रेरणा देती है, चाहे वे कितने भी दूर क्यों न हों। वह हमें सिखाती है कि अपनी आकांक्षाओं के लिए कड़ी मेहनत और समर्पण से हम असंभव को भी संभव बना सकते हैं।
कल्पना चावला का जीवन एक ऐसी महिला की कहानी है, जिसने अपने साहस, बुद्धिमत्ता और दृढ़ संकल्प से दुनिया को दिखा दिया कि हौसले बुलंद हों तो आसमान भी छोटा पड़ जाता है। उनकी विरासत हमें सिखाती है कि चाहे हम किसी भी पृष्ठभूमि से आएं, अगर हमारे पास सपने हैं और उन्हें पूरा करने का संकल्प है, तो हम कुछ भी हासिल कर सकते हैं।
आज, जब हम आकाश की ओर देखते हैं, तो कल्पना के जीवन और बलिदान को याद करते हैं, जिन्होंने हमें दिखाया कि सिर्फ तारों तक ही नहीं, बल्कि उनसे भी आगे जाने का साहस रखना चाहिए।
"हमारे पिछले, वर्तमान और भविष्य के अंतरिक्ष यात्रियों को समर्पित, जिन्होंने अपने सपनों और हमारे ज्ञान की सीमाओं को आगे बढ़ाने के लिए अपना सब कुछ दिया।"
नैन सिंह रावत (21 अक्टूबर, 1830 - 1 फरवरी, 1882) कुमाऊँ घाटी के एक असाधारण व्यक्ति थे, जिन्होंने 19वीं शताब्दी में हिमालय के दुर्गम क्षेत्रों के अन्वेषण में अमूल्य योगदान दिया। वे हिमालयी इलाकों की खोज करने वाले पहले भारतीय थे, जिन्होंने अपने साहस और दृढ़ संकल्प से ऐसे स्थानों का पता लगाया, जहाँ पहले किसी विदेशी का पैर नहीं पड़ा था। उनके द्वारा एकत्रित की गई भौगोलिक जानकारी ने न केवल मानचित्र विज्ञान को समृद्ध किया, बल्कि विज्ञान और साहित्य के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया।
नैन सिंह रावत का जन्म 21 अक्टूबर, 1830 को वर्तमान उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले के मिलम गाँव में हुआ था। यह गाँव जोहार घाटी में, भारत-तिब्बत सीमा के निकट स्थित है, जो प्राचीन काल से ही तिब्बत के साथ व्यापारिक संबंधों का केंद्र रहा है। शौक व्यापारियों से संबंधित एक रावत परिवार में जन्मे, नैन सिंह ने बचपन से ही व्यापारिक यात्राओं में अपने परिवार के साध्य दुर्गम हिमालयी मार्गों की यात्रा की थी, जिससे उन्हें इन क्षेत्रों की भौगोलिक समझ विकसित हुई।
उनके परिवार की पृष्ठभूमि ने उन्हें तिब्बती भाषा, संस्कृति और स्थानीय रीति-रिवाजों से परिचित होने का अवसर प्रदान किया, जो बाद में उनके अन्वेषण कार्य में अत्यंत महत्वपूर्ण साबित हुआ।
1850 के दशक में, ब्रिटिश भारतीय भू-सर्वेक्षण विभाग के कर्नल टी.जी. मोंटगोमरी ने एक विशेष अभियान "ग्रेट ट्रिगोनोमेट्रिकल सर्वे ऑफ इंडिया" के अंतर्गत हिमालय और तिब्बत के अज्ञात क्षेत्रों का मानचित्रण करने की योजना बनाई। इस मिशन के लिए ऐसे स्थानीय लोगों की आवश्यकता थी, जो इन क्षेत्रों की भाषा और भूगोल से परिचित हों और अंग्रेजों के लिए अपहुंच क्षेत्रों में जा सकें।
नैन सिंह रावत को उनके ज्ञान और क्षमताओं के कारण इस प्रोजेक्ट के लिए चुना गया। उन्हें देहरादून में विशेष प्रशिक्षण दिया गया, जहां उन्होंने सर्वेक्षण, मानचित्रण, और स्थान-निर्धारण की तकनीकों को सीखा। इसमें सेक्सटैंट का उपयोग, भौगोलिक स्थान का निर्धारण, दूरी मापन और विस्तृत नोट्स बनाने की तकनीक शामिल थी।
1865 में, नैन सिंह रावत ने अपना पहला महत्वपूर्ण अभियान शुरू किया - नेपाल से होकर तिब्बत तक के व्यापारिक मार्ग का मानचित्रण। इस यात्रा में वे एक तिब्बती व्यापारी के भेष में गए, क्योंकि तिब्बत में विदेशियों का प्रवेश निषिद्ध था। अपने साथ प्रार्थना का मनका माला ले गए, जिसका उपयोग वे गुप्त रूप से दूरी मापने के लिए करते थे - प्रत्येक कदम पर एक मनका खिसकाकर वे अपनी यात्रा की दूरी का हिसाब रखते थे।
इस अभियान की सबसे उल्लेखनीय उपलब्धि तिब्बत की राजधानी ल्हासा तक पहुंचना थी, जहां वे करीब तीन महीने रहे। उन्होंने ल्हासा की सटीक स्थिति और ऊंचाई की माप की, साथ ही तिब्बत के धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन के बारे में अमूल्य जानकारी एकत्र की।
अपनी दूसरी और तीसरी यात्राओं में (1867 और 1873-74), नैन सिंह रावत ने तिब्बत की मुख्य नदी त्सांगपो (ब्रह्मपुत्र नदी का ऊपरी हिस्सा) के एक विस्तृत हिस्से का मानचित्रण किया और लद्दाख, मानसरोवर और कैलाश पर्वत क्षेत्र का भी अन्वेषण किया।
नैन सिंह रावत की यात्राओं ने अज्ञात हिमालयी क्षेत्रों के भूगोल और संस्कृति के बारे में अमूल्य जानकारी प्रदान की। उनके द्वारा एकत्र किए गए आंकड़ों से:
इन योगदानों के अलावा, नैन सिंह रावत की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि थी "अक्षांश दर्पण" नामक पुस्तक का लेखन, जो हिंदी में आधुनिक भौगोलिक विज्ञान पर पहला महत्वपूर्ण ग्रंथ था। इस पुस्तक में उन्होंने सर्वेक्षण, मानचित्रण और स्थान-निर्धारण के सिद्धांतों को सरल हिंदी में समझाया, जो बाद की पीढ़ियों के लिए एक महत्वपूर्ण संदर्भ ग्रंथ बन गई।
नैन सिंह रावत के अन्वेषण कार्य में अनेक चुनौतियां और खतरे थे। तिब्बत में विदेशियों का प्रवेश निषिद्ध था, और यदि उनकी असली पहचान का पता चल जाता तो उन्हें गंभीर दंड का सामना करना पड़ सकता था। इसलिए उन्होंने एक तिब्बती व्यापारी के भेष में यात्रा की और स्थानीय भाषा, व्यवहार और रीति-रिवाजों का पालन किया।
अपने मापन और रिकॉर्डिंग के लिए उन्होंने अत्यंत नवीन तरीके अपनाए:
इन अविश्वसनीय रूप से कठिन परिस्थितियों में, उन्होंने अद्भुत सटीकता के साथ मापन किया, जो आधुनिक उपकरणों से की गई मापों से बहुत मिलते-जुलते थे।
नैन सिंह रावत के असाधारण योगदान के लिए उन्हें कई सम्मान प्राप्त हुए:
आज, नैन सिंह रावत को एक महान अन्वेषक, वैज्ञानिक और भारतीय मानचित्रण के अग्रदूत के रूप में याद किया जाता है। हिमालय के रहस्यों को उजागर करने में उनके योगदान ने न केवल भौगोलिक ज्ञान को बढ़ाया, बल्कि इस क्षेत्र के सांस्कृतिक और सामाजिक पहलुओं की भी समझ विकसित की।
उनकी विरासत "पंडित" अन्वेषकों (जिन्हें अक्सर "पंडित अन्वेषक" कहा जाता है) की एक पूरी पीढ़ी के रूप में जारी रही, जिन्होंने हिमालय और मध्य एशिया के अन्य हिस्सों की खोज जारी रखी।
नैन सिंह रावत के व्यक्तिगत जीवन के बारे में अधिक विस्तृत जानकारी उपलब्ध नहीं है, लेकिन यह ज्ञात है कि वे मिलम गाँव में अपने परिवार के साथ रहते थे और अपने अन्वेषण अभियानों के बीच अपने गृह क्षेत्र लौटते रहते थे।
अपने अंतिम वर्षों में, उन्होंने अपने अनुभवों और ज्ञान को आने वाली पीढ़ियों के लिए संकलित किया, जिसका परिणाम "अक्षांश दर्पण" जैसी महत्वपूर्ण रचनाओं के रूप में सामने आया।
नैन सिंह रावत का निधन 1 फरवरी, 1882 को हुआ, लेकिन उनका योगदान आज भी हिमालयी अन्वेषण और मानचित्रण के इतिहास में अमर है।
नैन सिंह रावत का जीवन साहस, समर्पण और वैज्ञानिक जिज्ञासा का प्रतीक है। उनके अन्वेषण कार्य ने हिमालय और तिब्बत के बारे में हमारे ज्ञान को अभूतपूर्व रूप से बढ़ाया और भारतीय भूगोल और मानचित्रण के क्षेत्र में एक नया अध्याय जोड़ा।
आज, जब हम उत्तराखंड के पहाड़ों की ओर देखते हैं, तो नैन सिंह रावत की विरासत हमें याद दिलाती है कि जिज्ञासा, दृढ़ता और साहस के साथ, हम अज्ञात की खोज कर सकते हैं और मानव ज्ञान की सीमाओं को आगे बढ़ा सकते हैं।
उनके द्वारा अज्ञात हिमालयी क्षेत्रों के नक्शे पर उतारी गई रेखाएँ न केवल भौगोलिक सीमाओं को चिह्नित करती हैं, बल्कि हमारी सामूहिक खोज की यात्रा के पथ को भी प्रकाशित करती हैं - एक ऐसी यात्रा जिसमें नैन सिंह रावत ने एक अमूल्य योगदान दिया।
"मानव की जिज्ञासा और अन्वेषण की भावना को समर्पित, जो हमें हमेशा अज्ञात की खोज के लिए प्रेरित करती है।"
References: