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हरिशंकर परसाई


मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले के जमानी नामक गाँव में 22 अगस्त 1924 को जन्मे हरिशंकर परसाई हिंदी साहित्य की प्रगतिशील परम्परा के प्रतिनिधि रचनाकार हैं। जीवन के अनेक अभावों से संघर्ष करते हुए नागपुर विश्वविद्यालय से हिंदी में एम.ए. और फिर डिप्लोमा इन टीचिंग की उपाधि लेकर हरिशंकर परसाई ने सर्वप्रथम ताकू (इटारसी) के जंगल विभाग में नौकरी करने के बाद 6 महीने खंडवा में अध्यापन कार्य किया।


लगभग सोलह-सत्रह वर्षों तक अनेक विद्यालयों में अध्यापन करने के पश्चात नौकरी से सदा के लिए अवकाश लेकर जीवन पर्यंत स्वतंत्र लेखन किया। परसाई जी ने साहित्य और लेखन को मात्र आजीविका का साधन कभी नहीं माना। इसे वे एक जन-प्रतिबद्ध कार्य मानते रहे। इसीलिए सन् 1956 में 'वसुधा नामक साहित्यिक पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन किया तथा आर्थिक नुकसान के बावजूद सन् 1958 तक वे इसे लगातार निकालते रहे। आज भी हिंदी साहित्य जगत में 'वसुधा' को उसमें छपने वाली साहित्यिक उत्कृष्टता के लिए जाना जाता है। परसाई जी के महत्त्वपूर्ण साहित्यिक अवदान के लिए जबलपुर विश्वविद्यालय ने उन्हें डी.लिट. की मानद उपाधि प्रदान की। सन् 1982 में ‘विकलांग श्रद्धा’ नामक व्यंग्य-संग्रह पर परसाई जी को साहित्य अकादमी ने साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया। परसाई जी को इसके अतिरिक्त अन्य अनेक पुरस्कारों से भी नवाजा गया।


अज्ञेय ने एक बार कहा था कि व्यक्ति का अनुभव संसार ही उसका भाषा संसार भी होता है। परसाई जी का अनुभव संसार अत्यंत विस्तृत और वैविध्यपूर्ण है, इसका प्रतिबिंबन होता है, उनके द्वारा रचित साहित्य में। जीवन, समाज, देश और दुनिया का शायद ही कोई ऐसा विषय हो, जो इस साहित्य में न आया हो। उन्होंने भारतीय समाज के अंतर्विरोधों से लेकर अनेक गम्भीर अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर समान अधिकार से लिखा। उनकी लेखनी ने हमेशा शोषित के पक्ष में आवाज़ उठायी और उनके जनवादी अधिकारों को लेखन के मंच पर उन्होंने पूरी शिद्दत के साथ अभिव्यक्ति प्रदान की। परसाई ने साहित्य की लगभग सभी विधाओं में लिखा परंतु साहित्य जगत में परसाई की ख्याति एक महान व्यंग्यकार के रूप में अधिक है। हरिशंकर परसाई की प्रकाशित रचनाएँ इस प्रकार हैं-- 'हँसते हैं रोते हैं', 'भूत के पाँव', 'तब की बात और थी', 'जैसे उनके दिन फिरे', 'सदाचार का ताबीज', 'पगडंडियों का जमाना', ' रानी नागफनी की कहानी', 'वैष्णव की फिसलन', 'ठिठुरता हुआ लोकतंत्र', 'अपनी अपनी बीमारी', 'निठल्ले की डायरी', 'मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ', 'बोलती रेखाएँ', 'एक  लड़की पाँच दीवाने', 'तिरछी रेखाएँ', 'और अंत में', 'तट की खोज', 'माटी कहे कुम्हार से', 'पाखंड का अध्यात्म', 'सुनो भई साधो', 'विकलांग श्रद्धा का दौर'', 'परसाई रचनावली (छ: खण्ड)। परसाई जी ने अपने समय की धर्मयुग, सारिका और नयी दुनिया जैसी पत्रिकाओं में सामाजिक-राजनीतिक विषयों पर अनेक कॉलम भी लिखे। परसाई जी की रचनाओं के अनुवाद देशी-विदेशी अनेक भाषाओं में हो चुके हैं। उनका निधन 10 अगस्त 1995 को हुआ|

"परसाई जी की रचनाएं राजनीति, साहित्य, भ्रष्टाचार, आजादी के बाद का ढोंग, आज के जीवन का अन्तर्विरोध, पाखंड और विसंगतियों को हमारे सामने इस तरह खोलती हैं जैसे कोई सर्जन चाकू से शरीर काट-काटकर गले अंग आपके सामने प्रस्तुत करता है। उसका व्यंग्य मात्र हँसाता नहीं है, वरन् तिलमिलाता है और सोचने को बरबस बाध्य कर देता है। कबीर जैसी उनकी अवधूत और निःसंग शैली उनकी एक विशिष्ट उपलब्धि है और उसी के द्वारा उनका जीवन चिंतर मुखर हुआ है। उनके जैसा मानवीय संवेदना में डूबा हुआ कलाकार रोज पैदा नहीं होता। आजादी के पहले का हिंदुस्तान जानने के लिए सिर्फ प्रेमचन्द्र पढ़ना ही काफी है, उसी तरह आजादी के बाद का पूरा दस्तावेज परसाई की रचनाओं में सुरक्षित है। चश्मा लगाकर ‘रामचंद्रिका’ पढ़ाने वाले पेशेवर हिंदी के ठेकेदारों के बावजूद, परसाई का स्थान हिन्दी में हमेशा-हमेशा के लिए सुरक्षित है।"


कहानियाँ

जैसे उनके दिन फिरे (कहानी संग्रह)
भोलाराम का जीव
हँसते हैं रोते हैं (कहानी संग्रह)

उपन्यास

ज्वाला और जल
तट की खोज
रानी नागफनी की कहानी

संस्मरण

तिरछी रेखाएँ

मरना कोई हार नहीं होती
सीधे-सादे और जटिल मुक्तिबोध

लेख

आवारा भीड़ के खतरे
ऐसा भी सोचा जाता है
अपनी अपनी बीमारी
माटी कहे कुम्हार से
काग भगोड़ा
सदाचार का ताबीज
प्रेमचन्द के फटे जूते
वैष्णव की फिसलन
ठिठुरता हुआ गणतंत्र
पगडण्डियों का जमाना
शिकायत मुझे भी है
तुलसीदास चंदन घिसैं
हम एक उम्र से वाकिफ हैं
तब की बात और थी
भूत के पाँव पीछे
बेइमानी की परत

हास्य-व्यंग्य

विकलांग श्रद्धा का दौर
दो नाक वाले लोग
आध्यात्मिक पागलों का मिशन
क्रांतिकारी की कथा
पवित्रता का दौरा
पुलिस-मंत्री का पुतला
वह जो आदमी है न
नया साल
घायल बसंत
संस्कृति
बारात की वापसी
ग्रीटिंग कार्ड और राशन कार्ड
उखड़े खंभे
शर्म की बात पर ताली पीटना
पिटने-पिटने में फर्क
बदचलन
एक अशुद्ध बेवकूफ
भारत को चाहिए जादूगर और साधु
भगत की गत
मुण्डन
इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर
तट की खोज
खेती
एक मध्यमवर्गीय कुत्ता
सुदामा का चावल
अकाल उत्सव
खतरे ऐसे भी
कंधे श्रवणकुमार के
दस दिन का अनशन
अपील का जादू

बाल-कहानी

चूहा और मैं
चिट्ठी-पतरी
मायाराम सुरजन

लघुकथाएँ

चंदे का डर
अपना-पराया
दानी
रसोई घर और पाखाना
सुधार
समझौता
यस सर

अश्लील

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तो पेश-ए-खिदमत है , कुछ चुने हुए पद्य , ओरकुट से १ रहो जमीं पे मगर आसमां का ख्वाब रखो तुम अपनी सोच को हर वक्त लाजवाब रखो खड़े न हो सको इतना न सर झुकाओ कभी उभर रहा जो सूरज तो धूप निकलेगी उजालों में रहो, मत धुंध का हिसाब रखो मिले तो ऐसे कि कोई न भूल पाये तुम्हें महक वंफा की रखो और बेहिसाब रखो अक्लमंदों में रहो तो अक्लमंदों की तरह और नादानों में रहना हो रहो नादान से वो जो कल था और अपना भी नहीं था, दोस्तों आज को लेकिन सजा लो एक नयी पहचान से २ खामोशी का मतलब इन्कार नही होता.. नाकामयाबी का मतलब हार नही होता.. क्या हुआ अगर हम उन्हे पा ना सके.. सिर्फ पा लेने का मतलब प्यार नही होता... चाहने से कोई बात नही होती.... थोडे से अंधेरे से रात नही होती.. जिन्हे चाहते है जान से ज्यादा.. उन्ही से आज कल मुलाकात भी नही होती... ३ कभी उनकी याद आती है कभी उनके ख्व़ाब आते हैं मुझे सताने के सलीके तो उन्हें बेहिसाब आते हैं कयामत देखनी हो गर चले जाना उस महफिल में सुना है उस महफिल में वो बेनकाब आते हैं कई सदियों में आती है कोई सूरत हसीं इतनी हुस्न पर हर रोज कहां ऐसे श़बाब आते हैं रौशनी के वास्ते तो उनका नूर ही काफ