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अकबर इलाहाबादी

आपका मूल नाम सैयद हुसैन था। उनका जन्म 16 नवंबर, 1846 में इलाहाबाद में हुआ था। अकबर इलाहाबादी विद्रोही स्वभाव के थे। वे रूढ़िवादिता एवं धार्मिक ढोंग के सख्त खिलाफ थे और अपने शेरों में ऐसी प्रवृत्तियों पर तीखा व्यंग्य (तंज) करते थे। उन्होंने 1857 का पहला स्वतंत्रता संग्राम देखा था और फिर गांधीजी के नेतृत्व में छिड़े स्वाधीनता आंदोलन के भी गवाह रहे। उनका असली नाम सैयद हुसैन था। अकबर कॆ उस्ताद् का नाम वहीद था जॊ आतिश कॆ शागिऱ्द् थॆ वह अदालत में एक छोटे मुलाजिम थे, लेकिन बाद में कानून का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया और सेशन जज के रूप में रिटायर हुए। इलाहाबाद में ही 9 सितंबर, 1921 को उनकी मृत्यु हो गई।

आपसे बेहद मुहब्बत है मुझे

आपसे बेहद मुहब्बत है मुझे आप क्यों चुप हैं ये हैरत है मुझे शायरी मेरे लिए आसाँ नहीं झूठ से वल्लाह नफ़रत है मुझे रोज़े-रिन्दी है नसीबे-दीगराँ शायरी की सिर्फ़ क़ूवत है मुझे नग़मये-योरप से मैं वाक़िफ़ नहीं देस ही की याद है बस गत मुझे दे दिया मैंने बिलाशर्त उन को दिल मिल रहेगी कुछ न कुछ क़ीमत मुझे अकबर इलाहाबादी रोज़े-रिन्दी = शराब पीने का दिन नसीबे-दीगराँ = दूसरों की क़िस्मत में क़ूवत = ताक़त

समझे वही इसको जो हो दीवाना किसी का

समझे वही इसको जो हो दीवाना किसी का 'अकबर' ये ग़ज़ल मेरी है अफ़साना किसी का गर शैख़ो-बहरमन सुनें अफ़साना किसी का माबद न रहे काब-ओ-बुतख़ाना किसी का अल्लाह ने दी है जो तुम्हे चाँद-सी सूरत रौशन भी करो जाके सियहख़ाना किसी का अश्क आँखों में आ जाएँ एवज़ नींद के साहब ऐसा भी किसी शब सुनो अफ़साना किसी का इशरत जो नहीं आती मिरे दिल में, न आए हसरत ही से आबाद है वीराना किसी का करने जो नहीं देते बयाँ हालते-दिल को सुनिएगा लबे-गोर से अफ़साना किसी का कोई न हुआ रूह का साथी दमे-आखि़र काम आया न इस वक्त़ में याराना किसी का हम जान से बेज़ार रहा करते हैं 'अकबर' जब से दिले-बेताब है दीवाना किसी का अकबर इलाहाबादी