आधुनिक युग की मीरा - महादेवी वर्मा

दिसंबर 07, 2024 ・0 comments


१. महादेवी वर्मा का जन्म फरुखाबाद में सन् १६०७ ई० में हुआ ।
२. रचनाएँ - कविताएँ नीहार, रश्मि, नीरजा, सांध्यगीत आदि । गद्य- अतीत के चलचित्र, स्मृति रेखाएँ आदि ।
३. इनकी रचनाओं में मीरा की भाँति वेदना ही वेदना है।


श्रीमती महादेवी वर्मा का जन्म फरुखाबाद में संवत् १६६४ में हुआ था । वह सुसंस्कृत प्रिवार की पुत्री हैं आपके पिता श्री बाबू- को गोविन्द प्रसाद भागलपुर के एक कालेज के प्रधानाचार्य थे तथा माता श्रीमती हेमरानी देवी विदुषी एवं कवियित्री थीं। आपके नाना मी ब्रजमाषा के अच्छे कवि थे। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा इन्दौर में हुई थी। आपने प्रयोग विश्व- विद्यालय से संस्कृत में एम० ए० की परीक्षा पास की। आपने प्रयाग महिला विद्यापीठ की प्रधानाचार्य के पद को सुशोधित किया है। आपने कुछ काल तक 'चाँद' का सम्पादन कार्य किया जिसमें उनकी साहित्यिक प्रतिभा बहुत निखरी है। अपनी उदारवृत्ति के फलस्वरूप आपने कई सहयोगी साहित्यकारों को संगठित कर प्रयाग में साहित्यकार संश्चद की स्थापना की है। साहित्यकारों की सहायता करना और उनकी अप्रकाशित रचनाओं को प्रकाशन। में लाने हेतु सक्रिय सहयोग देना इस संस्था का उद्देश्य है। उत्तर प्रदेश विधान सभा की बाप सदस्या भी रह चुकी हैं तथा आपने राष्ट्रपति द्वारा प्रदत्त 'पद्मभूषण' पदक मी प्राप्त किया है जो अब भाषा विधेयक के विरोध में त्याग दिया है। हिन्दी साहित्य सम्मेलन का मंगलाप्रसाद पारितोषक भी आपको प्राप्त हो चुका है। 

महादेवीजी को कविता से बचपन से ही प्रेम है। आप कवियित्री ही नहीं चित्रकषा का काव्य की चित्रात्मकता पर  वह अपितु कुशल चित्रकर्मी भी हैं। ब्यापक प्रभाव दिखाई देता है| महादेवीजी को संगीत से भी विशेष प्रेम है जिसके फलस्वरूप आपका काव्य संगीतमय है। आपने गीतकाव्य की सफल रचना की है। प्रत्येक पंक्ति में स्वर व लय का विशेष ध्यान रखा गया है। अपने जीवन और साहित्यिक प्रतिभा के बारे में स्वयं उन्होंने कहा है-

'मेरा बचपन बहुत अच्छा बीता। इसका 'कारण यह है कि हमारे यहाँ कई पीढ़ियों से कोई लड़की नहीं थी । न बाबा के कोई बहिन थी, न मेरे पिता के। मैं अपने बाबा के तप का फल हूँ। वह दुर्गा के उपासक थे और जब मैं पैदा हुई थी, तो वह बड़े प्रसन्न हुए थे। उन्होंने कहा था कि चलो एक लड़की तो पैदा हुई। सम्पन्न परिवार था, इसलिए अभाव कोई था नहीं । सभी प्रकार की सुविधाएँ प्राप्त थीं। शिक्षा के प्रति विशेष रुचि हमारे परि- वार की दूसरी विशेषता थी। मेरी माताजी ब्रजभाषा के' पद बनाती थीं और बहुत सुन्दर । मीरा के पद तो बहुत सुन्दर गाती थीं। वह अत्यधिक धार्मिक थीं और पूजा पाठ उनके प्राण थे। मेरे संस्कार भी वही हैं। प्रारम्भ में जब मैंने पद बनाना ही प्रारम्भ किया था और मैं यही कहूँगी कि पद बनाने में मुझे सफलता भी काफी मिली। फिर लिखना भी मैंने ब्रजभाषा में ही आर- म्भ किया। श्री गणेश समस्या-पूति से हुआ। वह भी एक पण्डितजी की कृपा से जो मुझे पढ़ाने आते हैं। उन्होंने मुझे समस्या पूर्ति सिखाई। वह पढ़ाने आते और कोई समस्या दे जाते। मैं दिन भर उसकी पूर्ति करती रहती थी। उसके बाद मैथिलीशरण जी की कुछ रचनाएँ पढ़ी तो समझ में आया कि जिस भाषा में बोलते हैं, उसमें भी कविता हो सकती है। यह सोचकर मैंने खड़ी बोली में कविता करना प्रारम्भ कर दिया और गुरुजी को दिखाया । वह बोले- अरे यह भी कोई कविता है कविता तो ब्रजभाषा में हो सकती है।' लेकिन मैं चोरी-चोरी यह सब करती रही, पिंगल शास्त्र देखकर हरिगीति का छन्द भी ढूंढ़ निकाला और उसी ढंग पर लिखना प्रारम्भ किया। एक खण्ड काव्य भी लिखा जिसकी मुझे याद नहीं न जाने कहाँ पड़ा होगा ? छन्द हरि- गीतिका है और हू-ब-हू गुप्तजी से मिलता-जुलता है। वह आंशिक रूप से उन दिनों छाया भी था । लेकिन उसके बाद छोटे-छोटे गीत लिखने की मुझे प्रेरणा स्वतः हुई। उसमें करुणा की प्रधानता इसलिए है कि महात्मा बुद्ध का मेरो जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा है। संसार साधारणतः जिसे दुःख और अभाव के नाम से जानता है वह मेरे पास नहीं है। जीवन में मुझे बहुत दुलार, बहुत आदर और बहुत मात्रा में सब कुछ मिला है। उस पर पार्थिव दुःख की छाया नहीं पड़ी है। कदाचित यह उसी की प्रतिक्रिया है कि वेदना मुझे इतनी मधुर लगने लगी । वैसे मेरी जीवन यात्रा बढ़ी सुखद रही ।'

पारिवारिक सुखद सुविधाओं का उल्लेख करने के साथ-साथ महादेवी वर्मा ने जीवन में मित्र का अभाव करते हुए लिखा है

"ममता के धरातल पर सुख-दुख का युक्त आदान-प्रदान यदि मित्रता की परिभाषा मानी जाय, तो मेरे पास मित्र का अभाव है।" वे वेदना को अपनी चिरसंगिनी बना चुकी हैं। फलतः वे यह नहीं चाहतीं कि अभी वेदना का अन्त हो जाय । वे अतृप्त रहें, वे सदैव प्यासी रहें, यही कामना उनकी है जो उनके काव्य में स्थान-स्थान पर अनेक रूपों में व्यक्त हुई है।

व्यक्तित्व- महादेवी वर्मा के जीवन पर महात्मा बुद्ध की अहिंसा काअत्यन्त प्रभाव है। ऐसा प्रतीत होता है कि उनमें अहिंसा मूर्तिमान हो गई है। एक बार उनकी सुनयना बिल्ली ने एक जानवर की हत्या कर डाली। उनके नेत्रों में आँसू भर आए। फिर सुनयना उनके यहाँ नहीं रही। वे अपने द्वारा - किसी को पीड़ा नहीं देतीं इसीलिए वे आदमी द्वारा खींचे जाने वाले रिक्शे में - नहीं बैठतीं । इस ममता भरी मूर्ति के मुख पर वात्सल्य मय मधुर हंसी सदैव थिरकती रहती है। उनके व्यक्तित्व के विषय में फूलचन्द जैन 'सारंग' ने अपनी 'हिन्दी और अपने कलाकार' में लिखा है-

"अत्यन्त लाड़-प्यार में पली पर वेदना को प्यार करने वाली महादेवी वर्मा बड़ी ममतामयी कोमल और करुणा की मूर्ति है।"

शिवचन्द नागर के शब्दों में-

"उनके अधरों में फूटता हुआ अखिल मुक्त हास उस तरह है, जैसे किसी - शान्त मधुर के आँचल में कोई दूध से श्वेत पारदर्शी जल का निर्झर फूट रहा ● हो और उसको धरा की रज मलिन न कर पाई हो। कोई भी व्यक्ति उनसे मिलने जाय, तो यदि उसे और भी कुछ न मिले तो वह इस निर्झर में स्नान - करने के सुख से वंचित न रह पायगा। ऐसा मेरा विश्वास है।"

महादेवी वर्मा का विशाल हृदय, सरल, तरल, सजीव स्नेह से पूर्ण हो कर भूखे-नंगे निराश्रय को देखकर उमड़ पड़ा और अभावग्रस्त,. भर्त्सनाओं की शिकार पीड़ित, उपेक्षित व्यक्ति के कारण सामाजिक बन्धनों से द्रवित हो उठा उन्हें जिस स्थान पर भी परवश, असहाय, विधवाएँ तथा कुसुम कली की सी फोमल, अल्प वयस्का, पति-विहीन, किसी युवक की विकृत वासनाओं का शिकार, अवैध सन्तति से विभूषित कोई दुखी वाला दीख पड़ी तो उनकी अन्तरात्मा और भी अत्यन्त दुर्दम्य, कठोर और आत्म वेदना से होकर प्रकट होती है। यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं कि महादेवी वर्मा वास्तव में इतनी विशाल हृदया हैं कि संसार भर का दुःख उनमें समा सकता है और उनके पास इतनी हंसी है कि सम्पूर्ण संसार का दुख लेकर हँसी दे सकती हैं।

गंगाप्रसाद जी पाण्डेय और रामकुमार जी वर्मा ने लिखा है--

"संसार तथा समाज की अनेक समस्यायें एवं अपनी आत्मा से चित्रित अस्पष्ट चरितार्थ लेकर उन्होंने उनमें अपने मन की मधुरता तथा हृदय की दृढ़ता का समावेश कर वे अनिरुद्ध रीति से अपने ध्येय की ओर अग्रसर हो रही है, जैसे संसार के कोलाहल के बीच में एक स्वच्छ सरिता अपने निश्चित पथ से कलकल निनाद के साथ अपने अभीष्ट की ओर शाश्वत प्रवाहित रहती है। सान्ध्य-गगन की उदासीनता, उसकी रंगमंचीयता, क्षणिकता में अस्तनिहित उनकी शाश्वतता एक निश्चित स्थान के साथ उसकी विश्वव्यापकता, अपने तर अनन्त पाला तथा शीतलता सजी रखने की उसकी क्षमता आदि हो, उनसे व्यक्तित्व के दिव्य रूपक हैं। उन्होंने लिखा भी है- प्रिय सान्ध्य गगरि बेरा जीवन ।"

व्यक्तित्व पर प्रभाव - बौद्ध साहित्य के अध्ययन से महादेवी में जो असीम

करुणा आ पड़ी है उसके परिणामस्वरूप वे प्रारम्भ से यही बात कह रही हैं- मैं नीर भरी दुख की बदली।' इस एक पंक्ति में उनकी सारी व्यथा सिमिट गई है। महादेवी के काव्य में अद्वैतवाद और वेदना का समन्वय है। कबीर एवं मीरा दोनों का प्रभाव उनके काव्य पर पड़ा है। छायावाद के तत्वों में से रहस्यवादी प्रतीकात्मकता, प्रकृति प्रेम, वेदना की निवृत्ति, लाक्षणिकता तथा पलायनवाद आदि के दर्शन उनकी कविता में हो जाते हैं।

रचनाएँ - काव्य, साधना के सम्बन्ध में उन्होंने कहा है- 'हमें निष्क्रिय बुद्धिवाद और स्पन्दनहीन वस्तुवाद के लम्बे पथ को पार करके कदाचित फिर स्बिर संवेदन सक्रिय भावना में जीवन के परमाणु खोजने होंगे। ऐसी मेरी व्यक्तिगत धारणा है।

उनके काव्यों में समष्टिगत चेतना में तादात्म्य के लिए आकुल व्यष्टि है, आत्मा की संवेदनशील प्रत्यानुभूतियों के तरले गीत हैं, करुणा में सिहरन है, बुल-घुल कर जलने वाली दीप-शिखा का पीड़ा के उल्लास से भरा वातावरण है, प्राकृतिक शोभा में एक अनन्त, अखण्ड अलौकिक, चिर सुन्दरता होते हुए जी अज्ञात चेतना की सत्ता की छाया का भास होता है, इस अज्ञात चेतना को अत्ता का प्रियतम विरहिणी आत्मा का ज्ञान है और इस प्रियतमा के पथ में आकुल प्राणों को प्रतीक्षा है, मान है, अभिसार है, शृंगार है, स्वप्नों का स्वर्णिम संसार है। अर्थात वह सब कुछ है जो विरह विधाता नारी के हृदय ःस्पन्दित होता है।

इस आध्यात्मिक अनुभूति के सम्बन्ध में महादेवी वर्मा ने स्वय लिखा है-

"पहले बाहर खिलने वाले फूल को देखकर मेरे रोम-रोम में ऐसा पुलक दौड़ जाता था मानो वह मेरे हृदय से ही खिला हो, परन्तु उसके अपने से भिन्न प्रत्यक्ष अनुभव में एक अव्यक्त वेदना भी थी, फिर यह सुख-दुख मिश्रित अनुभूति ही चिन्तन का विषय बनने लगी और अन्त में अब मेरे मन ने न जाने कैसे उसके मोतर-बाहर में एक सामजस्य ढूंढ़ लिया है, जिसने सुख-दुख को इस प्रकार बुन दिया है कि एक के प्रत्यक्ष अनुभव के साथ दूसरे का अप्रत्यक्ष आभास मिलता रहता है।"

आपकी प्रथम रचना 'नीहार' है। अपने प्रकाश से साहित्य क्षेत्र को प्रकाशित करती दूसरी रचना 'रश्मि' साहित्य क्षेत्र में आई। तीसरी रचना 'नीरजा' में साकार हुई। शान्ति, सन्तोष परन्तु वेदना से आप्लावित 'सान्ध्य गीति' उनकी चौथी रचना है। इन चारों रचनाओं को 'यामा' में संकलित किया गया है। 'दीपशिखा' कवियित्री की विशेष रचना है जिसमें उनकी कविताओं के साथ चित्र भी है।

'नीहार' में महादेवी वर्मा की उन अनुभूतियों की अभिव्यक्ति है, जिनमें विश्व-प्रकृति में किसी अप्रत्यक्ष सत्ता का आभास पाकर उसके प्रति जिज्ञासा और विस्मय की भाव-भूमि का अवतरण किया गया है। यथा -

"अवनि-अम्बर की रूपहली सीप में तरल मोती-सा जलधि जब काँपता तैरते घन मृदुल हिम के पुंज में ज्योत्स्ना के रज्जत पारावार में, सुरभि बन जो थपकियां देता मुझे नींद के उच्छवास-सा वह कौन है ?"

अप्रत्यक्ष सत्ता प्रियतम का स्वरूप बनकर 'रश्मि' में उपस्थित हुई है, 'जिससे कवियित्री की आत्मा अपना सम्बन्ध स्थापित करती है। रश्मि में अद्वैत भाव के दर्शन तथा द्वैत-भाव की छाया प्रतिमासित होती है-

'में तुममें हूँ एक, एक है जैसे रश्मि प्रकाश, मैं तुमसे हूँ भिन्न, मिन्न घन से तड़ित बिलास ।"

नीरजा में आत्मा को परमात्मा के आभास प्राप्ति की दशा में मिलन के 'लिए उत्कंठित अवस्था में दिखाया है-

'वे स्मृति बनकर प्राणों में खटका करते हैं निशिदिन, उनकी इस निष्ठुरता को जिससे मैं भूल न जाऊँ ।'

आध्यात्यमिक अनुभूतियों के विविध चित्रों का अंकन 'सान्ध्य गीत' एवं 'दीपशिवा' में मिलता है। आँसुओं की आर्द्रता, उच्छवासों का ताप एवं वेदना का ज्वाना प्रत्येक पृष्ठ पर दिखाई पड़ती है। सम्पूर्ण काव्य ही नारी सुलम अभिमान है और साधिका-स्लम आत्मविश्वास । साधिका को अपनी साधन श्री उतनी प्रिय ही है जितनी साध्य । उन्होंने साध्यावस्था का तिरस्कार मी। किया है। एकान्त साधना में निरन्तर उन्होंने लिखा है-

'हास का मधु दूत भेजो, 
रोष की अ-भंगिमा पतझार को चाहे सहेजा । 
ले मिलेगा उर अचंचल, वेदना जल स्वप्न शतदले, 
जान लो वह मिलन एकाकी विरह में है दुकेल !

महादेवी वर्मा एक प्रभावशाली एवं सिद्धहस्त गद्यकार भी हैं। उनका गद्य उत्कृष्ट, सरल और अपनी निजी शैली से मुक्त होता है। 'अतीत के चल चित्र' और 'स्मृति की रेखायें' उनकी अमर गद्य कृतियाँ हैं। 'श्रृंखला की कड़ियाँ' उनकी तीसरी गद्य रचना है जिसमें उनके नारी सम्बन्धी विचार दिए गए हैं। उन्होंने समीक्षात्मक निबन्ध भी लिखे हैं।

उनके कलाकार जीवन पर प्रकाश डालने के लिये श्री फूलचन्द जैन 'सारंग' के शब्द उपयुक्त हैं। उन्होंने लिखा है-

"महादेवी जी अपने जीवन में बड़ी कलात्मक है। उनके ड्राइंग रूम में जाइये, प्रवेश करते ही मन कह उठेगा कि यह किसी कलाकार का कमरा है। कमरे के चित्र, मूर्तियाँ और फूलों की व्यवस्था सभी एक कुशल कलाकार के हाथों से संवारे हुए हैं। ललित कलाओं की तो वे सरस्वती हैं। काव्य, संगीत, चित्रकला-तीनों का उन्हें वरदान प्राप्त है। उनका काव्य, हिन्दी की गौरव निधि है। उनके चित्रों की निकोलिस रोरिक जैसे विश्व-विख्यात कलाकारों ने मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की है.।

देश प्रेम-महादेवी जी की क्रियाशीलता काव्य और चित्रकला तक हो सीमित नहीं, महादेवी जी सक्रिय देश सेविका भी है। १६४२ के राजनैतिक आन्दोलन में उन्होंने ज्येष्ठ की तपती-जलती दुपहरी में गाँव-गाँव की धूप छानी और उन असहाय परिवारों के भोजन वस्त्र का प्रबन्ध किया जो ब्रिटिश साम्राज्यशाही के पाशविक अत्याचारों के शिकार हुए थे, और इस प्रकार महादेवी जी 'जहाँ एक ओर कल्पना के पंखों से काव्य के स्वप्निल नभ में विचरण करने वाली कवियित्री है, वहाँ दूसरी ओर इस धारा की पीड़ा को अपने अन्तर में समेटती हुई, दोनों हाथ से दान देती हुई दानेश्वरी, वरदा- यिनी महादेवी भी हैं।' श्री फलचन्द जैन 'सारंग' के यह शब्द महादेवी जी के जीवन, उनकी रचनाओं और कलाओं पर पूर्ण रूपेण प्रकाश डालते हैं।

भाषा - महादेवी जी की संस्कृत गर्भित भाषा में प्रवाह और संगीतात्मकता है। प्रतीक विधान, लक्षणा की व्यंजना का प्रचर प्रयोग, लोकोक्ति मुहाकरे तथा नवीन अलंकारों की सहायता से महादेवी वर्मा ने अपने काव्य को अलंकृत क्रिया है।

भावपक्ष - महादेवी विरह की कवियित्री हैं। उनके काव्य में करुणा का अखन्ड साम्राज्य है जो शत-शत स्वरों में झंकृत हुआ है। ऐसे सुखद सजीले, करुण तथा हृदय की कोमल भावनाओं से ओतप्रोत गीत सिवाय मीरा के और किसी ने नहीं लिखे हैं। करूण गीतों की वह गायिका इसीलिये आज आधुनिक मीरा के नाम से प्रसिद्ध हो चुकी है।

रहस्यवाद में विरहणी आत्मा अपना सम्पूर्ण स्नेह समेटे अपने अज्ञात प्रियतम से मिलने को सतत् तड़पती रहती है। वह पहले यह जानने का प्रयास करती है कि उनका और ब्रह्म का क्या सम्बन्ध है। यह जिज्ञासात्मक रहस्य- बाद के अन्तर्गत आती है। महादेवी जी ने इस दशा का वर्णन 'यह कौन हैं ?' जैसी कविताओं में किया है। दूसरी अवस्था विरह की है। यह विरह उनकी इसी कविता में प्रकट हुआ है।

महादेवी जी का ब्रह्म निर्विकार होते हुए भी शून्य से विश्व सृजन करता है। जिस प्रकार मकड़ी अपने जाले का निर्माण करती है, उसी प्रकार ब्रह्म इस जगत का निर्माण करता है-

स्वर्ग लतिका सी सुकुमार, हुई उसमें इच्छा साकार । उगल जिसने तिरंगे तार, बुन लिया अपना ही संसार ।।

उनकी आत्मा में चिरंतन विकलता है जो प्रियतम के वियोग का परिगाम है-

"फिर विकल हैं प्राण मेरे ।
तोड़ दो यह क्षितिज मैं भी देख लूं उस ओर क्या है ? जा रहे जिस पथ से युग कला उसका घोर क्या है ? क्यों मुझे प्राचीन बनकर आज मेरे श्वास घेरे ।

अपने प्रियतम से प्रणय निवेदन करती हुई जब वे कहती हैं- 'मैं मतवाली इधर उधर प्रिय मेरा अलबेला-सा है 
तो परवश ही मीरा का स्मरण हो आता है। असीम के प्रति वे कहती हैं- '

क्यों रहोगे छुद्र प्राणों में नहीं,
क्या तुम्ही सर्वे एक महान हो ?'

अलंकार - अपन्हुति, उल्लेख, यमक और समासोक्ति अलंकारों के साथ- साथ मानवीकरण आदि उन्हें विशेष प्रिय हैं। समासोक्ति अलंकार द्वारा प्रभात वर्णन दृष्टव्य है।

चुमते ही तेरा अरुण वाण इन कनक रश्मियों में अथाह
लेता हिलोर तम सिंधु जगा बनती अबला का महल कूप ।

जो क्षितिज रेख थी कुहरम्लान ।

महादेवी जी ने अभिशाप, वरदान, वीणा, झंकार तथा क्षितिज जैसे नये प्रतीकों का निर्माण किया है, जिसके द्वारा वे अमूर्त मावों को मूर्त रूप दे सकी हैं।

साहित्य में स्थान - मीरा के बाद 'महादेवी ही हिन्दी साहित्य में करुणा जौर वेदना की कवियित्री है। कवि और चित्रकार का ऐसा मेल हिन्दी साहित्य में अन्यत्र नहीं है। छायावादी कवियों में प्रसाद, पन्त, निराला के साथ उनका नाम सदैव ही गिना जाता रहेगा। भावपूर्ण गद्य लेखन क्षेत्र की तो वे एक- मात्र सफल कलाकार हैं। उनके जैसे रेखाचित्र हिन्दी में ही क्या अन्य भाषाओं में भी सम्भवतः कठिनाई से हो मिलेंगे ।

निष्कर्ष - उपरोक्त जीवन परिचय से हमें यह स्पष्ट हो जाता है कि महा- देवी वर्मा के काव्य में करुणा और वेदना की अजस्त्र धारा प्रवाहित है। उसमें बेदनानुभूति का अति कलात्मक रूप दृष्टिगोचर होता हैं। कसक, पीड़ा, छट पटाहट और विश्व प्रेम की अनौली दर्दीली विश्वासपूर्ण सरलता आदि वेदना की खूबियाँ हैं। संसार को सुखमय बनाने की प्रबल आकांक्षा रखती हुई व्यक्त करती हैं-

'सव बुझे दीपक जला लूं ।" वेदना को अति प्रिय प्रदर्शित करती हुई कहती है- 'झरते नित लोचन मेरे हों ।'

यही नहीं वेदना में सुख और माधुर्य का रमास्वादन करतो हैं- 'क्यों अश्रु न हो शृंगार मुझे ।"

करुणा और वेदना की सर्वोत्कृष्ट कवियित्री वेदनाभिव्यक्ति को अति भव्य और गरिमा मण्डित करने वाली महादेवी वर्मा विरह-काव्य की चिर साधिका है।

'मिलन का मत नाम ले, मैं विरह मैं चिर हूँ।'

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