मन की ऐसी मूर्खता

दिसंबर 07, 2024 ・0 comments

 इस मन की ऐसी मूर्खता है कि यह श्रीराम-भक्तिरूपी गंगा को त्यागकर ओस की बूंदों से तृप्त होने की आशा करता है। जैसे प्यासा पपीहा धुएँ का गोट देखकर उसे बादल समझ लेता है, किन्तु वहाँ जाने पर न तो उसको शीतलता प्राप्त होती है और न ही पानी प्राप्त होता है, धुएँ से आँखें और फूट जाती हैं। तुलसीदासजी कहते हैं यही दशा मेरे मन की है। जैसे मूर्ख बाज काँच के फर्श में अपने ही शरीर की परछाई देखकर उस पर चोंच मारने से वह (शीघ्र ही) टूट जायगी, इस बात को भूख के मारे भूलकर शीघ्र ही उसके ऊपर टूट पड़ता है गोस्वामीजी कहते हैं वैसे ही यह मेरा मन भी विषयों पर टूटा पड़ता है। हे कृपा के भंडार ! मैं इस कुचाल का कहाँ तक वर्णन करू ? आप तो भक्तों की दशा को अच्छी तरह जानते हैं। है ईश्वरक गोस्वामी तुलसीदासजी का दारुण दुःख दूर कीजिए

एक टिप्पणी भेजें

हिन्दी की प्रसिद्ध कवितायें / रचनायें
Published on http://rachana.pundir.in

If you can't commemt, try using Chrome instead.