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अमीर खुसरो

  छाप-तिलक तज दीन्हीं रे तोसे नैना मिला के । प्रेम बटी का मदवा पिला के, मतबारी कर दीन्हीं रे मोंसे नैना मिला के । खुसरो निज़ाम पै बलि-बलि जइए मोहे सुहागन कीन्हीं रे मोसे नैना मिला के ।   `2` जब यार देखा नैन भर दिल की गई चिंता उतर ऐसा नहीं कोई अजब राखे उसे समझाए कर । जब आँख से ओझल भया, तड़पन लगा मेरा जिया हक्का इलाही क्या किया, आँसू चले भर लाय कर । तू तो हमारा यार है, तुझ पर हमारा प्यार है तुझ दोस्ती बिसियार है एक शब मिली तुम आय कर । जाना तलब तेरी करूँ दीगर तलब किसकी करूँ तेरी जो चिंता दिल धरूँ, एक दिन मिलो तुम आय कर । मेरी जो मन तुम ने लिया, तुम उठा गम को दिया तुमने मुझे ऐसा किया, जैसा पतंगा आग पर । खुसरो कहै बातों ग़ज़ब, दिल में न लावे कुछ अजब कुदरत खुदा की है अजब, जब जिव दिया गुल लाय कर ।     अमीर खुसरो

चिट्ठाजगत Tags: ब्रज मानुस हौं तो वही रसखान, बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन। जो पसु हौं तो कहा बस मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥ पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धर्यो कर छत्र पुरंदर कारन। जो खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदीकूल कदम्ब की डारन॥

कलियों के होंट छूकर वो मुस्करा रहा है

कलियों के होंट छूकर वो मुस्करा रहा है झोंका हवा का देखो क्या गुल खिला रहा है. पागल है सोच मेरी, पागल है मन भी मेरा बेपर वो शोख़ियों में उड़ता ही जा रहा है. अपनी नज़र से ख़ुद को देखूं तो मान भी लूं आईना अक्स मुझको तेरा दिखा रहा है. हर चाल में है सौदा, हर चीज़ की है क़ीमत रिश्वत का दौर अब भी उनको चला रहा है. बुझता चिराग़ दिल में, किसने ये जान डाली फिर से हवा के रुख़ पे ये झिलमिला रहा है. पहचान आज पूरी होकर भी है अधूरी कुछ नाम देके आदम उलझन बढ़ा रहा है. बरसों की वो इमारत, अब हो गयी पुरानी कुछ रंग-रौगनों से उसको सज़ा रहा है. देवी नांगरानी

हमने पाया तो बहुत कम है बहुत खोया है......

हमने पाया तो बहुत कम है बहुत खोया है दिल हमारा लबे-दरिया पे बहुत रोया है. कुछ न कुछ टूटके जुड़ता है यहाँ तो यारो हमने टूटे हुए सपनों को बहुत ढोया है अरसा लगता है जो पाने में, वो पल में खोया बीज अफ़सोस का सहरा में बहुत बोया है. तेरी यादों के मिले साए बहुत शीतल से उनके अहसास से तन-मन को बहुत धोया है होके बेदार वो देखे तो सवेरे का समाँ जागने का है ये मौसम, वो बहुत सोया है. बेकरारी को लिये शब से सहर तक, दिल ये आतिशे-वस्ल में तड़पा है, बहुत रोया है. इम्तिहाँ ज़ीस्त ने कितने ही लिए हैं देवी उन सलीबों को जवानी ने बहुत ढोया है.   देवी नांगरानी

आओ मुक़ाबला करें

  उसे यह फ़िक्र है हरदम तर्ज़-ए-ज़फ़ा क्या है हमें यह शौक है देखें सितम की इंतहा क्या है दहर  से क्यों ख़फ़ा रहें, चर्ख  से क्यों ग़िला करें सारा जहां अदु सही, आओ मुक़ाबला करें ।                                                        ---सरदार भगत सिंह ____________________________________________________________ Tippadiya : तर्ज़-ए-ज़फ़ा = अन्याय, दहर = दुनिया, चर्ख = आसमान, अदु = दुश्मन दिल से निकलेगी न मरकर भी वतन की उल्फ़त मेरी मिट्टी से भी खुस्बू ए वतन आएगी । ट्रायल के दौरान दिया गया उनका यह मशहूर बयान:  http://www.raviwar.com/news.asp?c3    

दीवारो-दर थे, छत थी वो अच्छा मकान था

दीवारो-दर थे, छत थी वो अच्छा मकान था दो चार तीलियों पे ही कितना गुमान था. जब तक कि दिल में तेरी यादें जवांन थीं छोटे से एक घर में ही सारा जहान था. शब्दों के तीर छोडे गये मुझ पे इस तरह हर ज़ख़्म का हमारे दिल पर निशान था. तन्हा नहीं है तू ही यहां और हैं बहुत तेरे न मेरे सर पे कोई सायबान था. कोई नहीं था ‘देवी’ गर्दिश में मेरे साथ बस मैं, मिरा मुक़द्दर और आसमान था ------देवी नांगरानी

सखि, वसन्त आया

  सखि, वसन्त आया भरा हर्ष वन के मन, नवोत्कर्ष छाया। किसलय-वसना नव-वय-लतिका मिली मधुर प्रिय उर-तरु-पतिका मधुप-वृन्द बन्दी- पिक-स्वर नभ सरसाया। लता-मुकुल हार गन्ध-भार भर बही पवन बन्द मन्द मन्दतर, जागी नयनों में वन- यौवन की माया। अवृत सरसी-उर-सरसिज उठे; केशर के केश कली के छुटे, स्वर्ण-शस्य-अंचल पृथ्वी का लहराया।                                                  सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"