दिव्य प्रेम की यह अमरगाथा
धरा अजर अमर सी वसुंधरा, रस आनन्दित विभोर हुई ।।
सरस रस की कोख में द्रवित, हे सरल सहज सी चेतना ।
नित पल नवश्रृंगार कर, नवयौवना का रूप धर जीवन को आकर्षित करे।।
कहीं झरते प्रेमरस प्रपात, और कहीं निश्छल बहती प्रेम नद्य।।
प्रेमोद्दत्त हो चूमने को आतुर रसगगन को, पर्वतों के रूप लिये ।
धरा तेरा यह ऊर्जित प्रेम, शौर्य को भी न डिगने दे,नित्यानंद रूप में वो भी।।
पुष्प अर्पित कर प्रेमी को कर देती अपने निश्छल प्रेम का बखान।।
रस सागर का अनमोल महल यह, अमर प्रेम की सहज गाथा ये।
जीवन को दोनों मिलकर देते अमरत्व ये, नवयौवना प्रकृति और शौर्य।।
दिव्य ज्योति का आलिंगन ही, हे समर्थ धारण करने को इसको।।
जीवन भी मात्र एक श्रृंगार है धरा का, बरसाता जो दिव्य प्रेम गगन।
क्षणिक कल्पना सी चिंगारी, क्यों स्वामी वन धरा के महापराध करते हो ।।
रसानन्द रसराज रससमुद्र का बस जीवनपर्यंत रसनाओं से आनन्द लो।।
रस हो रस में रस से भरे रसिक रहो, रस के रसायन से रसवान बनो।
जीवन प्रेम रस का पान करो, न स्वामी बन अपमान करो, पूत हो पूत रहो ।।