सखि, वसन्त आया
सखि, वसन्त आया
भरा हर्ष वन के मन,
नवोत्कर्ष छाया।किसलय-वसना नव-वय-लतिका
मिली मधुर प्रिय उर-तरु-पतिका
मधुप-वृन्द बन्दी-
पिक-स्वर नभ सरसाया।लता-मुकुल हार गन्ध-भार भर
बही पवन बन्द मन्द मन्दतर,
जागी नयनों में वन-
यौवन की माया।अवृत सरसी-उर-सरसिज उठे;
केशर के केश कली के छुटे,स्वर्ण-शस्य-अंचल
पृथ्वी का लहराया।
सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
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