कुछ छंद ओरकुट से

फ़रवरी 08, 2008 ・0 comments

तो पेश-ए-खिदमत है , कुछ चुने हुए पद्य , ओरकुट से



रहो जमीं पे मगर आसमां का ख्वाब रखो
तुम अपनी सोच को हर वक्त लाजवाब रखो
खड़े न हो सको इतना न सर झुकाओ कभी
उभर रहा जो सूरज तो धूप निकलेगी
उजालों में रहो, मत धुंध का हिसाब रखो
मिले तो ऐसे कि कोई न भूल पाये तुम्हें
महक वंफा की रखो और बेहिसाब रखो
अक्लमंदों में रहो तो अक्लमंदों की तरह
और नादानों में रहना हो रहो नादान से
वो जो कल था और अपना भी नहीं था, दोस्तों
आज को लेकिन सजा लो एक नयी पहचान से




खामोशी का मतलब इन्कार नही होता..
नाकामयाबी का मतलब हार नही होता..
क्या हुआ अगर हम उन्हे पा ना सके..
सिर्फ पा लेने का मतलब प्यार नही होता...

चाहने से कोई बात नही होती....
थोडे से अंधेरे से रात नही होती..
जिन्हे चाहते है जान से ज्यादा..
उन्ही से आज कल मुलाकात भी नही होती...



कभी उनकी याद आती है कभी उनके ख्व़ाब आते हैं
मुझे सताने के सलीके तो उन्हें बेहिसाब आते हैं

कयामत देखनी हो गर चले जाना उस महफिल में
सुना है उस महफिल में वो बेनकाब आते हैं

कई सदियों में आती है कोई सूरत हसीं इतनी
हुस्न पर हर रोज कहां ऐसे श़बाब आते हैं

रौशनी के वास्ते तो उनका नूर ही काफी है
उनके दीदार को आफ़ताब और माहताब आते हैं

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