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दिव्य प्रेम की यह अमरगाथा

नवयौवना का सा श्रृंगार प्रकृति, नव निश्छल बहता जा प्रेम पथिक ।
धरा अजर अमर सी वसुंधरा, रस आनन्दित विभोर हुई ।।
सरस रस की कोख में द्रवित, हे सरल सहज सी चेतना ।
नित पल नवश्रृंगार कर, नवयौवना का रूप धर जीवन को आकर्षित करे।।
रह विशाल समुद्र की कोख में, रस सागर को भी कोख धरे ।
कहीं झरते प्रेमरस प्रपात, और कहीं निश्छल बहती प्रेम नद्य।।
प्रेमोद्दत्त हो चूमने को आतुर रसगगन को, पर्वतों के रूप लिये ।
धरा तेरा यह ऊर्जित प्रेम, शौर्य को भी न डिगने दे,नित्यानंद रूप में वो भी।।
कहीं कलकल करतीं गातीं नदियां और कहीं कलरव का गान।
पुष्प अर्पित कर प्रेमी को कर देती अपने निश्छल प्रेम का बखान।।
रस सागर का अनमोल महल यह, अमर प्रेम की सहज गाथा ये।
जीवन को दोनों मिलकर देते अमरत्व ये, नवयौवना प्रकृति और शौर्य।।
हे वसुंधरा के पूतों न करो अपराध, इसका स्वामी बन, यह है दिव्यागंना ।
दिव्य ज्योति का आलिंगन ही, हे समर्थ धारण करने को इसको।।
जीवन भी मात्र एक श्रृंगार है धरा का, बरसाता जो दिव्य प्रेम गगन।
क्षणिक कल्पना सी चिंगारी, क्यों स्वामी वन धरा के महापराध करते हो ।।
दिव्य प्रेम की यह अमरगाथा, प्रेम.. पुरूष और प्रकृति का।
रसानन्द रसराज रससमुद्र का बस जीवनपर्यंत रसनाओं से आनन्द लो।।
रस हो रस में रस से भरे रसिक रहो, रस के रसायन से रसवान बनो।
जीवन प्रेम रस का पान करो, न स्वामी बन अपमान करो, पूत हो पूत रहो ।।

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स्व. पंडित प्रताप नारायण मिश्र

स्व. पंडित प्रताप नारायण मिश्र प्रतापनारायण मिश्र (सितंबर, 1856 - जुलाई, 1894) भारतेंन्दु मंडल के प्रमुख लेखक, कवि और पत्रकार थे। पंडित जी का जन्म उन्नाव जिले के अंतर्गत बैजे गाँव निवासी, कात्यायन गोत्रीय, कान्यकुब्ज ब्राहृमण पं. संकटादीन के घर आश्विनी कृष्ण नौमी को संवत 1913 वि. में हुआ था।वह भारतेंदु निर्मित एवं प्रेरित हिंदी लेखकों की सेना के महारथी, उनके आदर्शो के अनुगामी और आधुनिक हिंदी भाषा तथा साहित्य के निर्माणक्रम में उनके सहयोगी थे। भारतेंदु पर उनकी अनन्य श्रद्धा थी, वह अपने को उनका शिष्य कहते तथा देवता की भाँति उनका स्मरण करते थे। भारतेंदु जैसी रचनाशैली, विषयवस्तु और भाषागत विशेषताओं के कारण मिश्र जी "प्रतिभारतेंदु" अथवा "द्वितीयचंद्र" कहे जाने लगे थे। बड़े होने पर वह पिता के साथ कानपुर में रहने लगे और अक्षरारंभ के पश्चात् उनसे ही ज्योतिष पढ़ने लगे। किंतु उधर रुचि न होने से पिता ने उन्हें अँगरेजी मदरसे में भरती करा दिया। तब से कई स्कूलों का चक्कर लगाने पर भी वह पिता की लालसा के विपरीत पढ़ाई लिखाई से विरत ही रहे और पिता की मृत्यु के पश्चात् 18-19 वर्ष

कुछ छंद ओरकुट से

तो पेश-ए-खिदमत है , कुछ चुने हुए पद्य , ओरकुट से १ रहो जमीं पे मगर आसमां का ख्वाब रखो तुम अपनी सोच को हर वक्त लाजवाब रखो खड़े न हो सको इतना न सर झुकाओ कभी उभर रहा जो सूरज तो धूप निकलेगी उजालों में रहो, मत धुंध का हिसाब रखो मिले तो ऐसे कि कोई न भूल पाये तुम्हें महक वंफा की रखो और बेहिसाब रखो अक्लमंदों में रहो तो अक्लमंदों की तरह और नादानों में रहना हो रहो नादान से वो जो कल था और अपना भी नहीं था, दोस्तों आज को लेकिन सजा लो एक नयी पहचान से २ खामोशी का मतलब इन्कार नही होता.. नाकामयाबी का मतलब हार नही होता.. क्या हुआ अगर हम उन्हे पा ना सके.. सिर्फ पा लेने का मतलब प्यार नही होता... चाहने से कोई बात नही होती.... थोडे से अंधेरे से रात नही होती.. जिन्हे चाहते है जान से ज्यादा.. उन्ही से आज कल मुलाकात भी नही होती... ३ कभी उनकी याद आती है कभी उनके ख्व़ाब आते हैं मुझे सताने के सलीके तो उन्हें बेहिसाब आते हैं कयामत देखनी हो गर चले जाना उस महफिल में सुना है उस महफिल में वो बेनकाब आते हैं कई सदियों में आती है कोई सूरत हसीं इतनी हुस्न पर हर रोज कहां ऐसे श़बाब आते हैं रौशनी के वास्ते तो उनका नूर ही काफ