ये शीशे, ये सपने, ये रिश्ते ये धागे

अप्रैल 18, 2023 ・0 comments

 

ग़ज़ल सुदर्शन फ़ाकिर 

ये शीशे, ये सपने, ये रिश्ते ये धागे

किसे क्या ख़बर है कहाँ टूट जायें

मुहब्बत के दरिया में तिनके वफ़ा के

न जाने ये किस मोड़ पर डूब जायें


अजब दिल की बस्ती अजब दिल की वादी 

हर एक मोड़ मौसम नई ख़्वाहिशों का

लगाये हैं हम ने भी सपनों के पौधे

मगर क्या भरोसा यहाँ बारिशों का


मुरादों की मंज़िल के सपनों में खोये

मुहब्बत की राहों पे हम चल पड़े थे

ज़रा दूर चल के जब आँखें खुली तो

कड़ी धूप में हम अकेले खड़े थे


जिन्हें दिल से चाहा जिन्हें दिल से पूजा

नज़र आ रहे हैं वही अजनबी से

रवायत है शायद ये सदियों पुरानी

शिकायत नहीं है कोई ज़िन्दगी से

व्याख्या:

ये ग़ज़ल सुदर्शन फ़ाकिर द्वारा लिखी गई है। इस ग़ज़ल में उन्होंने मुहब्बत के रिश्तों और उनके अस्थायी प्रकृति के बारे में व्यक्त किया है। इस ग़ज़ल में सुदर्शन फ़ाकिर जी एक ऐसे रिश्ते को वर्णन कर रहे हैं, जो न तो किसी के बस में होता है और न ही किसी को पता होता है कि ये क्या होता है। उन्होंने इस रिश्ते को शीशे, सपने, रिश्ते और धागों से तुलना कर दी है। जैसे शीशे कभी-कभी टूट जाते हैं, सपने कभी-कभी सच नहीं होते हैं, रिश्ते टूट जाते हैं और धागे कभी-कभी टूट जाते हैं, उसी तरह ये रिश्ता भी कभी-कभी टूट जाता है।

शीशों, सपनों, रिश्तों और धागों को एक नाजुक संबंध के रूप में दिखाया गया है जो किसी भी समय टूट सकता है। इस ग़ज़ल में मुहब्बत के दरिया में तिनकों वफ़ा के का वर्णन किया गया है जो संबंधों की अस्थायी प्रकृति को दर्शाता है।

उन्होंने इस रिश्ते की उलझन को भी बखूबी व्यक्त किया है। उन्होंने कहा है कि मोहब्बत के दरिया में तिनके वफ़ा के न जाने ये किस मोड़ पर डूब जायें। ये रिश्ता कुछ अलग है, इसलिए इसमें तकलीफ होना स्वाभाविक है।

इस ग़ज़ल में वह अजब दिल की बस्ती और वादी का ज़िक्र भी है, जो हमारी ज़िन्दगी के हर मोड़ पर नई ख़्वाहिशों का मौसम ब

इस ग़ज़ल में हमें अपनी अस्थायी जीवनी की भी चिंता करने को उकसाया जाता है। हम जीवन में अनेक रणनीतियों का उपयोग करते हुए अपनी मुरादों को पूरा करने की कोशिश करते हैं, लेकिन अक्सर हमारी ख्वाहिशें उड़ जाती हैं और हम अकेले खड़े हो जाते हैं। यह ग़ज़ल जीवन के अजीब संबंधों को दर्शाती है जो अनेक सवालों को उठाते हैं।






ये शीशे, ये सपने, ये रिश्ते और ये धागे, किसे क्या पता कि कहाँ टूट जाएंगे। मुहब्बत के दरिया में तिनके वफ़ा के, नहीं पता कि वे किस मोड़ पर डूब जाएंगे।

दिल की बस्ती और दिल की वादी, हर एक मोड़ पर नई ख़्वाहिशों के मौसम लगते हैं। हमने भी सपनों के पौधे लगाए हैं, लेकिन क्या हमें बारिशों का भरोसा है।

हम मुरादों की मंज़िल के सपनों में खोए थे और मुहब्बत की राहों पर चल पड़े थे। लेकिन जब आँखें खुलीं, तो हम अकेले कड़ी धूप में खड़े थे।

जिन्हें हमने दिल से चाहा और जिन्हें हमने दिल से पूजा, वे अजनबी से लगते हैं। शायद यह सदियों पुरानी रवायत है कि कोई ज़िन्दगी से शिकायत नहीं करता।

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Published on http://rachana.pundir.in

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