असल “प्रभात”

असल “प्रभात”

सुबह जब मुस्कुरा उठी तो लगा जैसे समय ने एक और मौका चुपके से हथेलियों पर रख दिया हो— बिना शोर, बिना ऐलान के। रात भर जो सवाल छत की दरारों में टंगे रहे, सुबह की पहली किरण ने उन्हें हल नहीं किया, बस इतना किया कि अँधेरे को थोड़ा कम कर दिया, ताकि हम अपने ही चेहरे को थोड़ा साफ़ देख सकें। हर नई सुबह किसी जवाब की नहीं, एक नए प्रश्न की जन्मस्थली है— मैं कौन हूँ, कहाँ जा रहा हूँ, और जो भागदौड़ में खो गया कल, वो सच में ज़रूरी था भी या नहीं। सुबह जब मुस्कुरा उठी तो समझ आया कि दिन बदलने से ज़्यादा ज़रूरी नज़र का बदलना होता है। सूरज तो हर रोज़ लगभग एक ही समय पर उगता है, पर अर्थ तभी बदलता है जब हम अपने भीतर की खिड़की थोड़ी और खोल देते हैं। शायद ज़िंदगी भी इन सुबहों की तरह ही है— न पूरी रोशनी, न पूरा अँधेरा, बस दो के बीच का एक पुल, जहाँ चलते‑चलते हम सीखते हैं कि मंज़िल से ज़्यादा सवाल पूछने की हिम्मत ही असल “प्रभात” है। -KS

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