Ek Boond | एक बूँद: परिवर्तन और संभावना की अमर कविता

परिचय

हिन्दी साहित्य में ‘एक बूँद’ (कवि: अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’) जीवन, बदलाव और आत्म-अस्तित्व की गहन प्रेरणा देनेवाली कविता है। यह कविता न केवल सुंदर शब्दचित्रों से भरी है, बल्कि हमें साहस और आत्मविश्वास के साथ जीवन में आगे बढ़ने का संदेश देती है।

पूरा कविता-पाठ

देव!! मेरे भाग्य में क्या है बदा,

मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में?

या जलूँगी फिर अंगारे पर किसी,

चू पडूँगी या कमल के फूल में?

बह गयी उस काल एक ऐसी हवा

वह समुद्र ओर आई अनमनी

एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला

वह उसी में जा पड़ी मोती बनी।

लोग यों ही हैं झिझकते, सोचते

जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर

किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें

बूँद लौं कुछ और ही देता है कर।

भावार्थ व विश्लेषण

कविता की शुरुआत बूँद के असमंजस, चिंतन और भय से होती है। “बूँद” बादल से स्वयं को अलग करती है, लेकिन आगे के सफ़र का डर उसे सोच में डाल देता है। जीवन में अक्सर, जब हमें अपनी ‘सुरक्षित जगह’ छोड़नी पड़ती है, तो असमंजस और अनिश्चितता का भाव आता है।

दूसरे पद में बूँद अपने भाग्य पर विचार करती है—क्या होगा उसका? बर्बाद होगी, मिट्टी हो जाएगी, या किसी सुन्दर कमल पर संवर जाएगी? यही जीवन की दुविधा है: आगे बढ़ने का जोखिम, लेकिन उसमें छिपी संभावनाएँ भी।

तीसरे पद में वह हवा में बहकर समुद्र तक पहुँचती है और एक खुली सीप में गिर जाती है। वहीं उसकी पहचान बदल जाती है, वह बूँद अब अमूल्य मोती बन जाती है।

आखरी पद में कवि स्पष्ट संदेश देते हैं—अक्सर जब बदलाव का समय आता है, तो लोग झिझकते हैं, घर-सुरक्षा छोड़ने का डर होता है। पर त्याग और साहस आखिर उन्हें नई पहचान और मूल्य प्रदान करते हैं—जैसे बूँद मोती बन जाती है।

जीवन-प्रेरणा

“एक बूँद” सिर्फ कविता नहीं, जीवन का मार्गदर्शन है। यह चुनौती, डर और परिवर्तन के क्षणों में हमें आगे बढ़ने, और अपनी पहचान पाने की प्रेरणा देती है। बदलाव, अनिश्चितता और नए अवसरों का सामना, चाहे कितना भी कठिन लगे, अंततः आपके भीतर छिपी ताकत और असली अस्तित्व को सामने लाता है।

निष्कर्ष

हरिऔध की “एक बूँद” जीवन के साहसिक निर्णयों, त्याग, परिवर्तन और संभावना का प्रतीक है। यदि आपने कभी अपने संकोच या डर को पार किया है, तो आप उस बूँद के अद्भुत सफर को ज़रूर महसूस करेंगे। जीवन में अग्रसर हों—बूँद की तरह, मोती बनने की ओर!

पाठकों से सवाल:
क्या आपने कभी ऐसी स्थिति महसूस की, जब डर को पीछे छोड़कर नया कदम उठाया और उसके बाद मिली नई पहचान या उपलब्धि? कमेंट ज़रूर करें!


एक बूँद

ज्यों निकल कर बादलों की गोद से
थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी
सोचने फिर-फिर यही जी में लगी,
आह! क्यों घर छोड़कर मैं यों कढ़ी?

देव मेरे भाग्य में क्या है बदा,
मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में?
या जलूँगी फिर अंगारे पर किसी,
चू पडूँगी या कमल के फूल में?

बह गयी उस काल एक ऐसी हवा
वह समुन्दर ओर आई अनमनी
एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला
वह उसी में जा पड़ी मोती बनी

लोग यों ही हैं झिझकते, सोचते
जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर
किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें
बूँद लौं कुछ और ही देता है कर

अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, 

जागो प्यारे

उठो लाल अब आँखें खोलो,
पानी लाई हूँ, मुँह धो लो ।

बीती रात कमल-दल फूले,
उनके ऊपर भौंरे झूले ।

चिड़ियाँ चहक उठी पेड़ों पर,
बहने लगी हवा अति सुन्दर ।

नभ में न्यारी लाली छाई,
धरती ने प्यारी छवि पाई ।

भोर हुआ सूरज उग आया,
जल में पड़ी सुनहरी छाया ।

ऐसा सुन्दर समय न खोओ,
मेरे प्यारे अब मत सोओ ।


-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध

अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध
जन्म: 15 अप्रैल 1865
निधन: 16 मार्च 1947

उपनाम : हरिऔध
जन्म स्थान : निज़ामाबाद, आज़मगढ़
कुछ प्रमुख कृतियाँ: प्रिय प्रवास, वैदेही वनवास, रस कलश, प्रेमाम्बु प्रवाह, चौखे चौपदे, चुभते चौपदे
विविध :अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध को खड़ी बोली का प्रथम महाकाव्यकार माना जाता है।