भारत कोकिला: सरोजिनी नायडू
मार्च 02, 2025 ・0 comments
उनके महापरिनिर्वाण दिवस (2 मार्च, 1949) पर, हम सरोजिनी नायडू के अद्वितीय योगदान को याद करते हैं - एक स्वतंत्रता सेनानी, कवयित्री, और भारत के प्रदेश उत्तर प्रदेश की पहली महिला राज्यपाल।
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
13 फरवरी, 1879 को हैदराबाद में एक बंगाली परिवार में जन्मी, सरोजिनी नायडू ने बचपन से ही असाधारण प्रतिभा का परिचय दिया। उनके पिता, डॉ. अघोरनाथ चट्टोपाध्याय, एक वैज्ञानिक और शिक्षाविद थे, जबकि उनकी माता बारदा सुंदरी देवी एक कवयित्री थीं। इस समृद्ध बौद्धिक वातावरण ने सरोजिनी की प्रतिभा को पोषित किया।
अपनी असाधारण प्रतिभा के कारण, मात्र बारह वर्ष की आयु में सरोजिनी ने मैट्रिक की परीक्षा पास कर मद्रास प्रेसीडेंसी में प्रथम स्थान प्राप्त किया। इस उपलब्धि से प्रभावित होकर, हैदराबाद के निज़ाम ने उन्हें विदेश में पढ़ने के लिए छात्रवृत्ति प्रदान की। उन्होंने किंग्स कॉलेज लंदन और बाद में गिर्टन कॉलेज, कैम्ब्रिज में अध्ययन किया, जहां उन्होंने अपने साहित्यिक कौशल को निखारा।
यह उल्लेखनीय है कि केवल 13 वर्ष की आयु में, सरोजिनी ने 1300 पदों की 'झील की रानी' नामक लंबी कविता और लगभग 2000 पंक्तियों का एक विस्तृत नाटक लिखकर अंग्रेजी भाषा पर अपना अधिकार सिद्ध कर दिया था। उनके पिता, जो उन्हें एक वैज्ञानिक के रूप में देखना चाहते थे, अपनी बेटी की साहित्यिक प्रतिभा से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने 'एस. चट्टोपाध्याय कृत पोयम्स' के नाम से सन् 1903 में उनकी कविताओं का एक संग्रह प्रकाशित करवाया।
व्यक्तिगत जीवन
1898 में इंग्लैंड से लौटने के बाद, सरोजिनी का विवाह डॉ. गोविन्दराजुलु नायडू से हुआ, जो एक फ़ौजी डॉक्टर थे। शुरुआत में उनके पिता इस विवाह के विरुद्ध थे, परंतु बाद में सहमत हो गए। हैदराबाद में उनका घर प्रेम, हंसी और सौंदर्य का केंद्र बन गया, जहां दूर-दूर से मित्र आते रहते थे। अपने परिवार और गृहस्थी के प्रति समर्पित होने के बावजूद, सरोजिनी का मन राष्ट्रीय कार्यों की ओर उन्मुख था।
कोकिला का गान: काव्य विरासत
सरोजिनी नायडू ने अपनी सुंदर काव्यात्मक रचनाओं के लिए "भारत कोकिला" का उपाधि अर्जित की। उनके प्रमुख काव्य संग्रहों में शामिल हैं:
- द गोल्डन थ्रेशहोल्ड (1905)
- द बर्ड ऑफ टाइम (1912)
- द ब्रोकन विंग (1917)
- द सेप्टर्ड फ्लूट (1937)
- द फेदर ऑफ द डॉन (1961, मरणोपरांत प्रकाशित)
सरोजिनी नायडू अपनी अंग्रेजी शिक्षा के दौरान इंग्लैंड में दो साल तक ही रहीं, किंतु वहाँ के प्रतिष्ठित साहित्यकारों और मित्रों ने उनकी बहुत प्रशंसा की। उनके मित्र और प्रशंसकों में 'एडमंड गॉस' और 'आर्थर सिमन्स' भी थे। उन्होंने किशोर सरोजिनी को अपनी कविताओं में गम्भीरता लाने की राय दी।
'द गोल्डन थ्रेशहोल्ड' के बाद 'बर्ड ऑफ़ टाइम' नामक संग्रह सन् 1912 में प्रकाशित हुआ, जिसमें उन्होंने लिखा:
"समय के पंछी का उड़ने को सीमित विस्तार पर लो पंछी तो यह उड़ चला।।"
इसके बाद सन् 1917 में उनका तीसरा कविता-संग्रह 'द ब्रोकन विंग' प्रकाशित हुआ, जिसमें उन्होंने लिखा:
"ऊँची उठती हूँ मैं, कि पहुँचू नियत झरने तक टूटे ये पंख लिए, मैं चढ़ती हूँ ऊपर तारों तक।"
यह "तारों तक पहुँचने" की भावना सदैव उनके साथ रही। सन् 1946 में दिल्ली में 'एशियन रिलेशन्स कॉन्फ्रेंस' को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा - "हम आगे, और भी आगे, ऊँचे, और ऊँचे जायेंगे, जब तक हम तारों तक न पहुँच जाएँ। आइए, तारों तक पहुँचने के लिए हम लोग बढ़ें।"
सन 1937 में, कई वर्षों बाद, सरोजिनी नायडू का आख़िरी कविता-संग्रह 'द सेप्टर्ड फ्लूट' प्रकाशित हुआ। इस समय वह देश की राजनीति में रची बसी थीं और बहुत लम्बे समय से उन्होंने कविता लिखना लगभग छोड़ ही दिया था।
सरोजिनी नायडू स्वयं अपनी रचनाओं को बहुत ही साधारण मानती थीं। "मैं सचमुच कोई कवि नहीं हूँ," उन्होंने कहा - "मेरे सामने एक दर्शन है, मगर मेरे पास आवाज़ नहीं है।" उन्होंने स्वयं को केवल "गीतों की गायिका" बताया। किंतु उनके गीत बहुत मधुर थे जो कोमल भावों और प्रेम की भावना से ओतप्रोत थे।
साहित्यिक विशेषताएँ और हिंदी साहित्य पर प्रभाव
सरोजिनी नायडू की कविताएँ प्रकृति, प्रेम, जीवन, मृत्यु और देशभक्ति के विषयों पर आधारित थीं। उनकी रचनाओं में भारतीय संस्कृति की समृद्धि, विविधता और सौंदर्य का चित्रण बड़े ही सहज और सुंदर ढंग से किया गया है। 'बाज़ार ऑफ़ द हार्ट' नामक कविता में उन्होंने भारतीय बाज़ारों की रंगीन दुनिया का जीवंत वर्णन किया है, जबकि 'इंडियन वीवर्स' में भारतीय बुनकरों की कठिन मेहनत और उनके हुनर को सम्मानित किया है।
हालांकि सरोजिनी नायडू मुख्य रूप से अंग्रेजी में लिखती थीं, हिंदी साहित्य पर उनका प्रभाव अप्रत्यक्ष रूप से महत्वपूर्ण था। वे बहुभाषाविद थीं और अपनी माता वरदा सुंदरी से बंगला सीखी तथा हैदराबाद के परिवेश से तेलुगु में प्रवीणता प्राप्त की। वे उर्दू शायरी की भी शौकीन थीं और काफी अच्छी उर्दू बोलती थीं। क्षेत्रानुसार वे अपना भाषण अंग्रेज़ी, हिंदी, बंगला या गुजराती भाषा में देती थीं।
हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के प्रचार के लिए नायडू का समर्थन स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान उनके विकास में योगदान देता था। उन्होंने सांस्कृतिक और राजनीतिक प्रवचन में क्षेत्रीय भाषाओं के उपयोग को प्रोत्साहित किया, राष्ट्रीय पहचान निर्माण में उनके महत्व को समझते हुए।
विभिन्न भारतीय भाषाओं से लोक गीतों और सांस्कृतिक तत्वों के अंग्रेजी में उनके अनुवादों ने इन परंपराओं को संरक्षित और बढ़ावा देने में मदद की। इसके विपरीत, उनकी कई अंग्रेजी कविताओं का बाद में हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद किया गया, जिससे उनका कार्य व्यापक दर्शकों के लिए सुलभ हो गया।
स्वतंत्रता सेनानी और राजनीतिक नेता
सरोजिनी नायडू सिर्फ एक कवयित्री ही नहीं, बल्कि एक दृढ़ स्वतंत्रता सेनानी भी थीं जिन्होंने अपना जीवन भारत के स्वतंत्रता संग्राम के लिए समर्पित किया। उनकी राजनीतिक यात्रा लगभग चौबीस वर्ष की आयु में प्रारंभ होती है। 1902 में कोलकाता (कलकत्ता) में उन्होंने बहुत ही ओजस्वी भाषण दिया जिससे गोपालकृष्ण गोखले बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने सरोजिनी जी का राजनीति में आगे बढ़ाने के लिए मार्गदर्शन किया।
महात्मा गांधी से उनकी मुलाकात 1914 में लंदन में हुई, जिसके बाद उनका जीवन पूरी तरह से राष्ट्रीय आंदोलन को समर्पित हो गया। गांधी जी के साथ रहकर सरोजिनी की राजनीतिक सक्रियता बढ़ती गई। वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हुईं और गांधी जी की करीबी सहयोगी बनीं, सविनय अवज्ञा आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया।
1925 में, उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कानपुर अधिवेशन की अध्यक्षता की, जिससे वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष बनने वाली पहली भारतीय महिला बनीं। गांधी जी ने सरोजिनी नायडू का कांग्रेस प्रमुख के रूप में बड़े ही उत्साह भरे शब्दों में स्वागत किया, 'पहली बार एक भारतीय महिला को देश की यह सबसे बड़ी सौगात पाने का सम्मान मिलेगा। अपने अधिकार के कारण ही यह सम्मान उन्हें प्राप्त होगा।'
अपने अध्यक्षीय भाषण में सरोजिनी नायडू ने भारत के सामाजिक, आर्थिक, औद्योगिक और बौद्धिक विकास की आवश्यकता की बात की। प्रभावशाली शब्दों में उन्होंने भारत की जनता को अपने देश की स्वाधीनता के लिए हिम्मत और एकता के साथ आगे बढ़ने का आह्वान किया। अपने भाषण के अंत में उन्होंने कहा, "स्वाधीनता संग्राम में भय एक अक्षम्य विश्वासघात है और निराशा एक अक्षम्य पाप है।"
नमक सत्याग्रह और भारत छोड़ो आंदोलन में भूमिका
1930 के प्रसिद्ध नमक सत्याग्रह में सरोजिनी नायडू गांधी जी के साथ चलने वाले स्वयंसेवकों में से एक थीं। गांधी जी की गिरफ्तारी के बाद, गुजरात के धरासणा में लवण-पटल की पिकेटिंग करते हुए, जब तक स्वयं गिरफ्तार न हो गईं, तब तक वह आंदोलन का संचालन करती रहीं। धरासणा वह स्थान था जहाँ पुलिस ने शान्तिमय और अहिंसक सत्याग्रहियों पर घोर अत्याचार किए थे। सरोजिनी नायडू ने उस परिस्थिति का बड़े साहस के साथ सामना किया और अपने बेजोड़ विनोदी स्वभाव से वातावरण को सजीव बनाये रखा।
1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान, गांधी जी और कांग्रेस कार्यकारिणी के अन्य सदस्यों के साथ सरोजिनी नायडू को भी गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें गांधी जी के साथ पुणे के आगा खान महल में रखा गया। कष्टप्रद दिनों में, जब गांधी जी उदास होते, तब अपने खराब स्वास्थ्य के बावजूद सरोजिनी नायडू अपने विनोद और हंसी से उनका मन बहलाने की कोशिश करतीं। महादेव देसाई और कस्तूरबा गांधी की मृत्यु के बाद भी, सरोजिनी नायडू चट्टान की तरह अडिग गांधी जी के साथ रहीं।
महिला अधिकारों की समर्थक
सरोजिनी नायडू महिला अधिकारों और शिक्षा की प्रबल पक्षधर थीं। उन्होंने 1917 में महिला भारतीय संघ की सह-स्थापना की और राष्ट्रीय आंदोलन में महिला मुद्दों को सामने लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके भाषणों और लेखों ने स्वतंत्रता संग्राम और राष्ट्र निर्माण में महिलाओं की भागीदारी के महत्व पर जोर दिया।
सरोजिनी नायडू का यह मानना था कि भारतीय नारी कभी भी कृपा की पात्र नहीं थी, वह सदैव से समानता की अधिकारी रही है। उन्होंने अपने इन विचारों के साथ महिलाओं में आत्मविश्वास जाग्रत करने का काम किया। पितृसत्ता के समर्थकों को भी नारियों के प्रति अपना नज़रिया बदलने के लिये प्रोत्साहित किया।
उनकी नज़रों में शिक्षा नारी मुक्ति की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण क़दम था। शिक्षित होकर ही नारी अपने परिवार और समाज को बेहतर बना सकती है। इस उक्ति में उनका पूर्ण विश्वास था कि "जो हाथ पालना झुलाते हैं वही दुनिया पर शासन करते हैं।" लेकिन उनका यह भी विश्वास था कि किसी अज्ञानी और अशिक्षित नारी का हाथ यह नहीं कर सकता है।
राज्यपाल के रूप में योगदान
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, सरोजिनी नायडू को उत्तर प्रदेश के राज्यपाल के रूप में नियुक्त किया गया, जिससे वे स्वतंत्र भारत के किसी राज्य की पहली महिला राज्यपाल बनीं। उस पद को स्वीकार करते हुए उन्होंने कहा, "मैं अपने को 'क़ैद कर दिये गये जंगल के पक्षी' की तरह अनुभव कर रही हूँ।" फिर भी, उन्होंने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के प्रति अपने स्नेह के कारण यह पद स्वीकार किया और लखनऊ में रहकर अपने कर्तव्यों का सौजन्य और गौरवपूर्ण ढंग से निर्वहन किया।
30 जनवरी, 1948 को गांधी जी की हत्या के बाद, शोकाकुल देश को धैर्य बंधाते हुए उन्होंने कहा, "व्यक्तिगत दु:ख मनाने का समय अब बीत चुका है। अब समय आ गया है कि हमें सीना तानकर यह कहना है: 'महात्मा गांधी का विरोध करने वालों की चुनौती हम स्वीकार करेंगे।'"
व्यक्तित्व और सौन्दर्य प्रेम
राजनीतिक और सामाजिक उत्तरदायित्वों के बावजूद, सरोजिनी नायडू हंसी और गीत की प्रतीक थीं। उनका वक्तव्य संगीतमय शब्दों में होता था, जो समय आने पर सिंह की गर्जना भी बन सकती थी। सौन्दर्य और रंगों के प्रति उनका प्रेम अदभुत था।
उस समय के गम्भीर चेहरे वाले और सफ़ेद खादी की पोशाक पहनने वाले नेताओं से भिन्न, वह रंग-बिरंगी चमकीली रेशमी साड़ियाँ पहनती थीं। वह भारी नेक्लेस और ख़ूबसूरत आभूषणों में दिलचस्पी लेती थीं। जब वह 1928 में अमेरिका गईं, तब जगमगाते सिने तारकों से भरे हॉलीवुड में जाना भी नहीं भूली थीं।
सुन्दर वस्त्रों की तरह स्वादिष्ट भोजन भी उन्हें बड़ा प्रिय था। चॉकलेट और कबाब तो उन्हें बहुत ही पसंद था। वह इतनी नटखट थीं कि खाने के बारे में डॉक्टरों की पाबन्दियों को नज़रअंदाज़ करने में उन्हें बड़ा मज़ा आता था।
राज्यपाल होने पर भी, सरोजिनी नायडू का व्यवहार हमेशा अनौपचारिक होता था। लोगों की, विशेषकर युवा लोगों की, वह स्वयं कष्ट सहकर भी सहायता करती थीं। देश की युवा पीढ़ी को वह बहुत चाहती थीं और उन पर उनका गहरा विश्वास था।
अनमोल विचार और वचन
सरोजिनी नायडू ने अपने जीवन में अनेक प्रेरणादायक विचार दिए, जो आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं:
- "जब हम अपने लक्ष्य से भटक जाते हैं, तो हमें याद रखना चाहिए कि यह कोई अंत नहीं है, बल्कि एक नई शुरुआत का अवसर है।"
- "विरोध की आवाज़ उठाना ही सच्ची देशभक्ति है।"
- "महिलाओं की मुक्ति बिना पुरुषों की मुक्ति के संभव नहीं है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं।"
- "जब अत्याचार होता है, तो एकमात्र आत्मसम्मानजनक बात यह है कि उठें और कहें कि यह आज ही समाप्त होगा, क्योंकि मेरा अधिकार न्याय है।"
2 मार्च, 1949 को लखनऊ में सरोजिनी नायडू का निधन हो गया। वे एक ऐसी विरासत छोड़ गईं जो पीढ़ियों को प्रेरित करती रहेगी। एक कवयित्री, स्वतंत्रता सेनानी और महिला अधिकारों की पक्षधर के रूप में उनके बहुमुखी योगदान ने उन्हें आधुनिक भारतीय इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण व्यक्तित्वों में से एक बना दिया।
सरोजिनी नायडू एक बहुमुखी प्रतिभा की धनी थीं, जिन्होंने अपनी काव्य प्रतिभा, राजनीतिक नेतृत्व और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में भारत को एक अमूल्य योगदान दिया। उनका जीवन हमें सिखाता है कि कैसे साहित्य और राजनीति का सामंजस्य एक समाज को बदलने की शक्ति रखता है।
आज हम "भारत कोकिला" के रूप में जानी जाने वाली इस महान विभूति को नमन करते हैं, जिन्होंने अपनी मधुर वाणी से न केवल भारतीयों को बल्कि पूरे विश्व को मंत्रमुग्ध कर दिया। उनकी विरासत भारतीय इतिहास में सदैव अमर रहेगी और आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करती रहेगी।
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