धुन ये है आम तेरी रहगुज़र होने तक

 कृष्ण बिहारी 'नूर' की ग़ज़ल

धुन ये है आम तेरी रहगुज़र होने तक

हम गुज़र जाएँ ज़माने को ख़बर होने तक


मुझको अपना जो बनाया है तो एक और करम

बेख़बर कर दे ज़माने को ख़बर होने तक

 

अब मोहब्बत की जगह दिल में ग़मे-दौरां है

आइना टूट गया तेरी नज़र होने तक

 

ज़िन्दगी रात है मैं रात का अफ़साना हूँ

आप से दूर ही रहना है सहर होने तक

 

ज़िन्दगी के मिले आसार तो कुछ ज़िन्दा में

सर ही टकराईये दीवार में दर होने तक


यह ग़ज़ल एक आदमी की जीवन दृष्टि को दर्शाती है जो अपने जीवन के महत्वपूर्ण निर्णयों के साथ लड़ रहा है। इस ग़ज़ल में कई तरह के भाव व्यक्त किए गए हैं जैसे कि उम्मीद, अधूरापन, दुःख और इच्छा। इस ग़ज़ल में अधिकतर पंक्तियों में समय की महत्वता दर्शाई गई है। इस ग़ज़ल में आदमी अपनी यात्रा के बारे में सोचता है जो जीवन और मृत्यु से शुरू होकर ख़त्म होती है। इस ग़ज़ल में एक भव्य भाव है जो हमें याद दिलाता है कि हमारी ज़िन्दगी का समय बहुत कीमती है और हमें उसे उत्तम ढंग से जीना चाहिए।


ये शीशे, ये सपने, ये रिश्ते ये धागे

 

ग़ज़ल सुदर्शन फ़ाकिर 

ये शीशे, ये सपने, ये रिश्ते ये धागे

किसे क्या ख़बर है कहाँ टूट जायें

मुहब्बत के दरिया में तिनके वफ़ा के

न जाने ये किस मोड़ पर डूब जायें


अजब दिल की बस्ती अजब दिल की वादी 

हर एक मोड़ मौसम नई ख़्वाहिशों का

लगाये हैं हम ने भी सपनों के पौधे

मगर क्या भरोसा यहाँ बारिशों का


मुरादों की मंज़िल के सपनों में खोये

मुहब्बत की राहों पे हम चल पड़े थे

ज़रा दूर चल के जब आँखें खुली तो

कड़ी धूप में हम अकेले खड़े थे


जिन्हें दिल से चाहा जिन्हें दिल से पूजा

नज़र आ रहे हैं वही अजनबी से

रवायत है शायद ये सदियों पुरानी

शिकायत नहीं है कोई ज़िन्दगी से

दिल की दीवार-ओ-दर पे क्या देखा

दिल की दीवार-ओ-दर पे क्या देखा

बस तेरा नाम ही लिखा देखा


तेरी आँखों में हमने क्या देखा

कभी क़ातिल कभी ख़ुदा देखा

 

अपनी सूरत लगी पराई सी

जब कभी हमने आईना देखा  


सुदर्शन फ़ाकिर 


फ़ासले ऐसे भी होंगे ये कभी सोचा भी न था

फ़ासले ऐसे भी होंगे ये कभी सोचा भी न था
सामने बैठा था मेरे और वो मेरा न था

वो के ख़ुश-बू की तरह फैला था चार सू
मैं उसे महसूस कर सकता था छू सकता न था

रात भर पिछली ही आहट कान में आती रही
झाँक कर देखा गली में कोई भी आया न था

मैं तेरी सूरत लिए सारे ज़माने में फिरा
सारी दुनिया में मगर कोई तेरे जैसा न था

ये भी सब वीरानियाँ उस के जुदा होने से थीं
आँख धुँधलाई हुई थी शहर धुंदलाया न था

सैंकड़ों तूफ़ान लफ़्ज़ों में दबे थे ज़ेर-ए-लब
एक पत्थर था ख़ेमोशी का के जो हटता न था

याद कर के और भी तकलीफ़ होती थी 'अदीम'
भूल जाने के सिवा अब कोई भे चारा न था

मस्लेहत ने अजनबी हम को बनाया था 'अदीम'
वरना कब इक दूसरे को हम ने पहचाना न था

--अदीम हाशमी